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धर्मपरीक्षा-१९
३२३ इति ज्ञात्वा बुधैर्हेया परकीया नितम्बिनी। क्रुद्धस्येव कृतान्तस्य दृष्टिर्जीवितघातिनी ॥६५ संतोषेण सदा लोभः शमनीयो ऽतिवधितः। बदानो दुःसहं तापं विभावसुरिवाम्भसा ॥६६ धनं धान्यं गृहं क्षेत्रं द्विपदं च चतुष्पदम् । सर्व परिमितं कार्य संतोषव्रतवर्तिना ॥६७ । धर्मः कषायमोक्षेण नारीसंगेन मन्मथः । लाभेन वर्धते लोभः काष्ठक्षेपेण पावकः॥६८ पुरुष नयति श्वभ्रं लोभो भीममनिजितः। वितरन्ति न किं दुःखं वैरिणः प्रभविष्णवः॥६९ अजितं सन्ति भुजाना द्रविणं बहवो जनाः।
नारकी सहमानस्य न सहायो ऽस्ति वेदनाम् ॥७० इस प्रकार परस्त्रीसेवनसे होनेवाले दुखको जानकर बुद्धिमान मनुष्योंको उस परस्त्रीके सेवनका परित्याग करना चाहिए । कारण यह कि उक्त परकीय स्त्री क्रोधको प्राप्त हुए यमराजकी दृष्टिके समान प्राणीके जीवितको नष्ट करनेवाली है ॥६५॥
जिस प्रकार अतिशय वृद्धिंगत होकर दुःसह सन्तापको उत्पन्न करनेवाली अग्निको जलसे शान्त किया जाता है उसी प्रकार अतिशय वृद्धिको प्राप्त होकर दुःसह मानसिक सन्तापको देनेवाले लोभको निरन्तर सन्तोषके द्वारा शान्त किया जाना चाहिए ॥६६॥
___ सन्तोषव्रतमें वर्तमान-परिग्रहपरिमाण अणुव्रतके धारक-श्रावकको धन (सुवर्णादि), धान्य (अनाज), गृह, खेत, द्विपद (दासी-दास आदि), तथा चतुष्पद (हाथी, घोड़ा, गाय व भैस आदि); इन सबका प्रमाण कर लेना चाहिए और फिर उस ग्रहण किये हुए प्रमाणसे अधिककी अभिलाषा नहीं करना चाहिए ॥६७॥
क्रोधादि कषायोंके छोड़नेसे धर्मकी, स्त्रीके संसर्गसे भोगाकांक्षाकी, उत्तरोत्तर होनेवाले लाभसे लोभकी तथा इंधनके डालनेसे अग्निकी वृद्धि स्वभावतः हुआ करती है ॥६॥ . यदि लोभके ऊपर विजय प्राप्त नहीं की जाती है तो वह मनुष्यको भयानक नरकमें ले जाता है। ठीक है-प्रभावशाली शत्रु भला कौन-से दुखको नहीं दिया करते हैं ? अर्थात् यदि प्रभावशाली शत्रुओंको वशमें नहीं किया जाता है तो वे जिस प्रकार कष्ट दिया करते हैं उसी प्रकार लोभादि आन्तरिक शत्रुओंको भी यदि वशमें नहीं किया गया है तो वे भी प्राणीको नरकादिके दुखको दिया करते हैं ॥६९॥
कमाये हुए धनका उपभोग करनेवाले तो बहुत-से जन-कुटुम्बी आदि-होते हैं, किन्तु उक्त धनके कमानेमें संचित हुए पापके फलस्वरूप नरकके दुखके भोगते समय उनमें से कोई भी सहायक नहीं होता है-वह उसे स्वयं अकेले ही भोगना पड़ता है ॥७०॥
६६) ब क ड इ अस्ति for अति। ६८) अ ब इ लोभेन । ६९) अ भीमगतिजितः। ७०) ड सहायो ऽस्ति न वेदनाम् ।