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________________ [१] 'श्रीमानभस्वत्त्रयतुङ्गशालं जंगद्गृहं बोधमय प्रदीपः । समन्ततो द्योतयते यँदीयो भवन्तु ते तीर्थंकराः श्रिये नः ॥ १ कर्मक्षयानन्तरमर्थनीयं विविक्तमात्मानमवाप्ये पूतम् । त्रैलोक्यचूडामणयोऽभवन्ये भवन्तु मुक्त मम मुक्तये ते ॥२ dचोंशुभिर्भाव्यमनः सरोजं निद्रां न यैर्बोधितमेति भूर्यैः । कुर्वन्तु दोषोदपनोदिनस्ते चर्यामगर्ह्या मम सूरि सूर्याः ॥ ३ अर्थबोधक टिप्पण्यः - १) १. उद्घोतलक्ष्मीवान्; क श्रीविद्यते यस्यासौ । २. वातत्रयं - घनवात - घनोदधिवात-तनुवातत्रयम्; क नभस्वत्त्रयमेव तुङ्गः शालो यस्य स तम् । ३. त्रि [त्रै]लोक्यगृहम् । ४. केवलज्ञानदीप:; क ज्ञानमयः । ५. युगपत् सर्वत्र; क सामस्त्येन । ६. उद्द्योतं प्रगटीकरोति; क प्रकाशयते । ७. येषां तीर्थकराणाम्; क यस्य अयं यदीयः । ८. अस्माकं कल्याणाय । २) १. क प्रकटमात्मस्वरूपम् । २. क प्राप्य । ३. क पवित्रम् । ४. सिद्धपरमेष्ठिनः; क सिद्धाः । ३) १. क वचनकिरणैः । २. संकोचम् । ३. विकासितम् । ४ क पुनः । ५. रात्रिदोष । ६. आचरणम् ; क चरित्रम् । ७. अनिन्दितम्; क अनिन्द्याम् । ८. आचार्यसूर्याः । [ हिन्दी अनुवाद ] जिनका प्रकाशरूप लक्ष्मीसे सम्पन्न ज्ञानरूपी दीपक तीन वातवलयरूप उन्नत तीन acid ऐसे लोकरूप घरको सब ओरसे प्रकाशित करता है वे तीर्थंकर भगवान् हम सबके लिये लक्ष्मीके कारण होवें । अभिप्राय यह है कि तीर्थंकरोंका अनन्त ज्ञान तीनों लोकोंके भीतर स्थित समस्त पदार्थोंको इस प्रकारसे प्रकाशित करता है जिस प्रकार कि दीपक एक छोटे-से घरके भीतर स्थित वस्तुओंको प्रकाशित करता है । इस प्रकार उन तीर्थकरोंका स्मरण करते हुए ग्रन्थकर्ता श्री अमितगति आचार्य यहाँ यह प्रार्थना करते हैं कि उनकी भक्ति प्रसादसे हम सबको भी उसी प्रकारकी ज्ञानरूप लक्ष्मी प्राप्त हो || १ || जो सिद्ध परमेष्ठी कर्मक्षयके पश्चात् प्रार्थनीय, निर्मल एवं पवित्र आत्मस्वरूपको प्राप्त करके तीनों लोकके चूडामणि ( शिरोरत्न) के समान हो गये हैं- लोकके ऊपर सिद्धक्षेत्र में जा विराजे हैं - वे मेरे लिए मुक्तिके साधक होवें ॥२॥ जिन आचार्यरूपी सूर्योंके द्वारा अपने वचनोंरूप किरणोंसे प्रबोधित किया गया भव्य जीवोंका मनरूपी कमल फिरसे निद्राको प्राप्त नहीं होता है, दोषोदयको नष्ट करनेवाले वे आचार्यरूपी सूर्य मेरी अनिन्दनीय ( निर्मल) चर्याको करें ॥ विशेषार्थ - यहाँ आचार्यों में पाठभेदा:- १) ब ड इ बोधमयः । २) क ड इ मर्चनीयं; व त्रिलोकचूडा; क ' मणयो बभूवुर्भ े, इ यो भवन्ति । ३) इ न वै बोधित' ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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