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________________ धर्मपरीक्षा-१८ ३०७ समस्तलब्धयो लब्धा भ्रमता जन्मसागरे। न लब्धिश्चतुरङ्गस्य मित्रकापि शरीरिणा ॥७९ देशो जातिः कुलं रूपं पूर्णाक्षत्वमरोगिता। जीवितं दुर्लभं जन्तोर्देशनाश्रवणं ग्रहः ॥८० एषु सर्वेषु लब्धेषु जन्मद्रुमकुठारिकाम् । लभते दुःखतो बोधि सिद्धिसौधप्रवेशिकाम् ॥८१ यच्छुभं दृश्यते वाक्यं तज्जैनं परदर्शने। मौक्तिकं हि यदन्यत्र तदब्धौ जायते ऽखिलम् ॥८२ जिनेन्द्रवचनं मुक्त्वा नापरं पापनोदनम्। भिद्यते भास्करेणैव दुर्भेदं शावरं तमः॥८३ आदिभूतस्य धर्मस्य जैनेन्द्रस्य महीयसः । अपरे नाशका धर्माः सस्यस्य शलभा इव ॥८४ ८०) १. धर्मोपदेश । ८२) १. क्रिया आचारपढय । ८३) १. स्फेटनम् । हे मित्र! इस प्राणीने संसाररूप समुद्र में गोते खाते हुए अन्य सब लब्धियोंको प्राप्त किया है, परन्तु उसे उन चारोंमें-से किसी एककी भी प्राप्ति नहीं हो सकी ॥७९॥ प्राणीके लिए योग्य देश, जाति, कुल, रूप, इन्द्रियोंकी परिपूर्णता, नीरोगता, दीर्घ आयु तथा धर्मोपदेशकी प्राप्ति एवं उसका सुनना व ग्रहण करना; ये सब क्रमशः उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। फिर इन सबके प्राप्त हो जानेपर जो रत्नत्रयस्वरूप बोधि संसाररूप वृक्षके काटनेमें कुल्हाड़ीके समान होकर मोक्षरूप महलमें प्रवेश कराती है वह तो उसे बहुत ही कष्टके साथ प्राप्त होती है ।।८०-८१॥ अन्य मतमें जो उत्तम कथन दिखता है वह जिनदेवका ही कथन (उपदेश) जानना चाहिए । उदाहरणस्वरूप मोती जो अन्य स्थानमें देखे जाते हैं वे सब समुद्र में ही उत्पन्न होते हैं । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मोती एकमात्र समुद्रमें ही उत्पन्न होकर अन्य स्थानोंमें पहुँचा करते हैं उसी प्रकार वस्तुरूपका जो यथार्थ कथन अन्य विविध मतोंमें भी कचित् देखा जाता है वह जैन मतमें प्रादुर्भूत होकर वहाँ पहुँचा हुआ जानना चाहिए ।।८२।। जिनेन्द्रके वचनको-जिनागमको छोड़कर अन्य किसीका भी उपदेश पापके नष्ट करनेमें समर्थ नहीं है । ठीक भी है-रात्रिके दुर्भेद सघन अन्धकारको एकमात्र सूर्य ही नष्ट कर सकता है, अन्य कोई भी उसके नष्ट करने में समर्थ नहीं है ।।८३॥ सर्वश्रेष्ठ जो जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट आदिभूत धर्म है, अन्य धर्म उसको इस प्रकारसे नष्ट करनेवाले हैं जिस प्रकार कि पतंगे-टिडियों आदिके दल-खेतोंमें खड़ी हुई फसलको नष्ट किया करते हैं॥८४॥ ७९) क ड इ समस्ता लब्धयो; इ शरीरिणाम् । ८०) इमरोगिताम्; ड देशनाश्रवणे । ८१) अप्रवेशकाम् । ८३) ब भास्करेणेव; इ दुर्भेद्यम् । ८४) अ जिनेन्द्रस्य ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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