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________________ २९६ अमितगतिविरचिता नास्ति स्वस्वामिसंबन्धो नान्यगेहे गमागमौ । न होनो नाधिकस्तत्र न व्रतं नापि संयमः॥११ सप्तभिः सप्तकस्तत्र दिनानां जायते ऽङ्गिनाम् । सर्वभोगक्षमो देहो नवयौवनभूषणः॥१२ स्त्रीपुंसयोर्युगं तत्र जायते सहभावतः। कान्तिद्योतितसर्वाङ्ग ज्योत्स्नाचन्द्रमसोरिव ॥१३ आर्यमाह्वयते नाथं प्रेयसी प्रियभाषिणी। तत्रासौ प्रेयसीमा चित्रचाटुक्रियोद्यतः ॥१४ दशाङ्गो दीयते भोगस्तेषां कल्पमहीरहैः । दशाङ्गनिर्विकारैश्च धर्मेरिव सविग्रहः ॥१५ मद्यतूर्यग्रहज्योतिर्भूषाभोजनविग्रहाः। स्रग्दीपवस्त्रपात्राङ्गा दशधा कल्पपादपाः ॥१६ १४) १. आयः। इन कालोंमें प्राणियोंके मध्यमें स्व-स्वामिभाव सम्बन्ध-सेवक व स्वामीका व्यवहार नहीं रहता, दूसरोंके घरपर जाना-आना भी नहीं होता, हीनता व अधिकता (नीच-ऊँच) का भी व्यवहार नहीं होता, तथा उस समय व्रत व संयमका भी परिपालन नहीं होता ॥११॥ उन कालोंमें प्राणियोंका शरीर जन्म लेनेके पश्चात् सात सप्ताह-उनचास दिनोंमेंनवीन यौवनसे विभूषित होकर समस्त भोगोंके भोगनेमें समर्थ हो जाता है ॥१२॥ उस समय चाँदनी और चन्द्रमाके समान कान्तिसे सब ही शरीरको प्रतिभासित करनेवाला स्त्री व पुरुषका युगल साथ ही उत्पन्न होता है ॥१३॥ भोगभूमियों स्नेह पूर्वक मधुर भाषण करनेवाली प्रिय स्त्री अपने स्वामीको 'आर्य' इस शब्दके द्वारा बुलाती है तथा वह स्वामी भी उस प्रियतमाको अनेक प्रकारकी खुशामदमें तत्पर होता हुआ 'आर्या' इस शब्दसे सम्बोधित करता है ॥१४॥ उक्त कालोंमें शरीरधारी दस धर्मोंके समान जो दस प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं वे सब प्रकारसे विकारसे रहित होकर उन आर्य जनोंके लिए दस प्रकारके भोगको प्रदान किया करते हैं ॥१५॥ ___वे दस प्रकारके कल्पवृक्ष ये हैं-मद्यांग, तूर्यांग, गृहांग, ज्योतिरंग, भूषणांग, भोजनांग, मालांग, दीपांग, वस्त्रांग, और पात्रांग ॥१६।। ११) कडयोहगमा, डन दीमो। १२) व शुभभावतः, ड महतावतः; अ°द्योतितसर्वांशम् । १४) अ प्रेमभाषिणी....प्रेयसोनार्या:चिवघाटक्रियोदितः बचित्रचाहुरिव क्रिया। १५) ब क निर्मलाकारधर्म ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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