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________________ [१८] श्रुत्वा पवनवेगो ऽथ परक्शनदुष्टताम् । पप्रच्छेति मनोवेगं संदेहतिमिरच्छिदे ॥१ परस्परविरुद्धानि कथं जातानि भूरिशः । बर्शनान्यन्यवीयानि कम्यतां मम सन्मते ॥२ आकर्ण्य भारती तस्य मनोवेगो ऽगदीविति । उत्पत्तिमन्यतीर्थानां श्रयतां मित्र बच्मि ते ॥३ उत्सपिण्यवसपिण्यो वर्तेते भारते सदा। दुनिवारमहावेगे त्रियामावासराविव ॥४ एकैकस्यात्र षड्भेदाः सुखमासुखमाक्यः । परस्परमहाभेवा वर्षे वा विशिरादयः॥५ ४) १. रात्रिदिवसी इव । इस प्रकार पवनवेगने दूसरे मतोंकी दुष्टताको सुनकर उन्हें अनेक दोषोंसे परिपूर्ण जानकर-अपने सन्देहरूप अन्धकारको नष्ट करनेके लिए मनोवेगसे यह पूछा कि दूसरोंके वे बहुत प्रकारके मत परस्पर विरुद्ध हैं, यह तुम कैसे जानते हो। हे समीचीन बुद्धिके धारक मित्र ! उन दर्शनोंकी उत्पत्तिको बतलाकर मेरे सन्देहको दूर करो ॥१-२॥ पवनवेगकी वाणीको-उसके प्रश्नको-सुनकर मनोवेग इस प्रकार बोला-हे मित्र! मैं अन्य सम्प्रदायोंकी उत्पत्तिको कहता हूँ, सुनो ॥३॥ जिस प्रकार रात्रिके पश्चात् दिन और फिर दिनके पश्चात् रात्रि, यह रात्रि-दिनका क्रम निरन्तर चाल रहता है। उनकी गतिको कोई रोक नहीं सकता है, उसी प्रकार इस भ क्षेत्रके भीतर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये दो काल सर्वदा क्रमसे वर्तमान रहते हैं, उनके संचारक्रमको कोई रोक नहीं सकता है। इनमें उत्सर्पिणी कालमें प्राणियोंकी आयु एवं बल व बुद्धि आदि उत्तरोत्तर क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होते रहते हैं और अवसर्पिणी कालमें वे उत्तरोत्तर क्रमसे हानिको प्राप्त होते रहते हैं ॥४॥ जिस प्रकार एक वर्षमें शिशिर व वसन्त आदि छह ऋतुएँ प्रवर्तमान होती हैं उसी प्रकार उक्त दोनों कालोंमें-से प्रत्येकमें सुषमासुषमा आदि छह कालभेद-अवसर्पिणीमें १. सुषमासुषमा २. सुषमा ३. सुषमदःषमा ४. दःषमसषमा ५. दःषमा और ६. दुःषमःषमा तथा उत्सर्पिणीमें दुःषमदुःषमा व दुःषमा आदि विपरीत क्रमसे छहों काल-प्रवर्तते हैं । जिस प्रकार ऋतुओंमें परस्पर भेद रहता है उसी प्रकार इन कालोंमें भी परस्पर महान भेद रहता है ॥५॥ ४) क र इमहावेगौ; अ वर्तन्ते । ५) अ एकैका यत्र, व एकैकात्र तु, क एककत्रात्र ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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