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धर्मपरीक्षा-१७ - वाणारसीनिवासस्य ब्रह्मा पुत्रः प्रजापतेः। उपेन्द्रो वसुदेवस्य सात्यकेर्योगिनो हरः ॥७८ सृष्टिस्थितिविनाशानां कथ्यन्ते हेतवः कथम् । एते निसर्गसिद्धस्य जगतो हतचेतनैः ॥७९ यदि सर्वविदामेषां मूतिरेकास्ति तत्त्वतः। तदा ब्रह्ममुरारिभ्यां लिङ्गान्तः किं न वीक्ष्यते ॥८० सर्वज्ञस्य विरागस्य शुद्धस्य परमेष्ठिनः । किंचिज्ज्ञारागिणो ऽशुद्धा जायन्ते ऽवयवाः कथम् ॥८१ प्रलयस्थितिसर्गाणां विधातुः पार्वतीपतेः। लिङ्गच्छेदकरस्तापस्तापसैर्दीयते कथम् ॥८२ ये यच्छन्ति महाशापं धूर्जटेरपि तापसाः। निभिन्नास्ते कथं बाणैर्मन्मथेन निरन्तरैः॥८३ स्रष्टारो जगतो देवा ये गीर्वाणनमस्कृताः।
प्राकृतो इव कामेन किं ते त्रिपुरुषा जिताः ॥८४ ८४) १. समस्तलोका इव ।
ब्रह्मा वाराणसीमें रहनेवाले प्रजापतिका, कृष्ण वसुदेवका और शम्भु सात्यकि योगीका पुत्र है । ये तीनों जब साधारण मनुष्यके ही समान रहे हैं तब उन्हें अज्ञानी जन स्वभावसिद्ध लोकके निर्माण, रक्षण और विनाशके कारण कैसे बतलाते हैं ? अभिप्राय यह है कि अनादि-निधन इस लोकका न तो ब्रह्मा निर्माता हो सकता है, न विष्णु रक्षक हो सकता है, और न शम्भु संहारक ही हो सकता है ।।७८-७९।।
यदि ये तीनों सर्वज्ञ होकर वस्तुतः एक ही मूर्तिस्वरूप हैं तो फिर ब्रह्मा और विष्णु लिंगके-इस एक मूर्तिस्वरूप शिवके लिंगके–अन्तको क्यों नहीं देख सके ? ॥८॥
जो परमात्मा सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्ध और परमेष्ठी है उसके अवयव अल्पज्ञ, रागी और अशुद्ध संसारी प्राणी-उक्त प्रजापति आदिके पुत्रस्वरूप वे ब्रह्मा आदि-कैसे हो सकते हैं; यह विचारणीय है॥८॥
जो पार्वतीका पति शंकर लोकके विनाश, रक्षण और निर्माणका करनेवाला है उसके लिए लिंगच्छेदको करनेवाला शाप तापस कैसे दे सकते हैं ? यह वृत्त युक्तिसंगत नहीं माना जा सकता है ।।८२॥
इनके अतिरिक्त जो ऐसे सामर्थ्यशाली तापस शंकरके लिए भी भयानक शाप दे सकते हैं वे कामके द्वारा निरन्तर फेंके गये बाणोंसे कैसे विद्ध किये गये हैं, यह भी सोचनीय है ।।८३॥
जो उक्त ब्रह्मा आदि विश्वके निर्माता थे तथा जिन्हें देवता भी नमस्कार किया करते थे वे तीनों महापुरुष साधारण पुरुषोंके समान कामके द्वारा कैसे जीते गये हैं उन्हें कामके वशीभूत नहीं होना चाहिए था ॥८४॥ ७८) ब क इ वाराणसी। ८०) अ इरेको ऽस्ति; क ड इ लिङ्गान्तम्; अ ब वीक्षितः । ८२) अ ड शाप: for तापः। ८३) ब निरन्तरम् । ८४) अ प्रकृता इव ।