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अमितगतिविरचिता
मिथ्यात्वाव्रतकोपादियोगः कर्म यवज्यंते । कथं तेच्छक्यते हन्तुं तदभाव' विनाङ्गिभिः ॥ ६२ फलं 'नितदीक्षायां निर्वाणं वर्णयन्ति ये । आकाशवल्लरी पुष्प सौरभ्यं वर्णयन्तु ते ॥ ६३
सूरीणां यदि वाक्येन पुंसां पापं पलायते । क्षीयन्ते वैरिणो राज्ञां बन्धूनां वचसा तवा ॥६४ नायन्ते दीक्षया रागा यया नेह शरीरिणाम् । नसा नाशयितुं शक्ता कर्मबन्धं पुरातनम् ॥६५ ● गुरूणां वचसा ज्ञात्वा रत्नत्रितयसेवनम् । कुर्वतः क्षीयते पापमिति सत्यं वचः पुनः ॥६६
६२) १. तत् कर्म । २. सम्यक्त्वेन विना । ६३) १. व्रतरहितेन ।
६६) १. यथायोग्यम् ।
कभी शत्रुका सिर नहीं छेदा जा सकता है उसी प्रकार संयम एवं ध्यानादिसे रहित नाम मात्रकी दीक्षा से कभी पापका विनाश नहीं हो सकता है ॥ ६१ ॥
प्राणी मिध्यात्व, अविरति, क्रोधादि कषाय और योगके द्वारा जिस कर्मको उपार्जित करते हैं उसे वे उक्त मिथ्यात्वादिके अभाव के बिना कैसे नष्ट कर सकते हैं ? नहीं नष्ट कर सकते हैं ॥६२॥
व्रतहीनदीक्षाके होनेपर मोक्षपदरूप फल प्राप्त होता है, इस प्रकार जो कथन करते हैं, उन्हें आकाशवेलिके पुष्पोंकी सुगन्धिका वर्णन भी करना चाहिए। तात्पर्य यह कि व्रतहीन दीक्षा से मोक्ष की प्राप्ति इस प्रकार असम्भव है, जिस प्रकार कि आकाशलता के फूलों से सुगन्धिकी प्राप्ति ||६३ ॥
आचार्योंके वचनसे - ऋषि-मुनियोंके आशीर्वादात्मक वाक्यके उच्चारण मात्रसेयदि प्राणियोंका पाप नष्ट होता है तो फिर, बन्धुजनोंके कहने मात्रसे ही राजाओंके शत्रु भी नष्ट हो सकते हैं ||६४॥
जिस दीक्षा के द्वारा यहाँ प्राणियोंके रोग भी नहीं नष्ट किये जा सकते हैं वह दीक्षा भला उनके पूर्वकृत कर्मबन्धके नष्ट करनेमें कैसे समर्थ हो सकती है ? नहीं हो सकती है ॥६५॥
परन्तु गुरुओंके वचनसे— उनके सदुपदेश से - रत्नत्रयके स्वरूपको जानकर जो उसका परिपालन करता है उसका पाप नष्ट हो जाता है, यह कहना सत्य है || ६६ ||
६२) अकोपादियोगिनः कर्म दीर्यते, ब क इ यदर्यंते । ६३) क ड इ वर्णयन्ति । ६५ ) इ नाश्यते .... रागो ।