SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ अमितगतिविरचिता जिनेन्द्रसौषव्यपघातरक्षी निःपोडच पान मुनिनगेन्द्रम् । लङ्काषिपो यो घृतरावणाल्यो संकोच्य पादं रवते नितान्तम् ॥९८ कैलासशैलोद्धरणं प्रसिद्ध वालो कवियोजयति स्म रुद्रे । क रावणः सुव्रततीर्थभाव को शंकरः सन्मतितीर्थवर्ती ॥९९ अहल्यया दूषितदीनवृत्तियः शक्रनामा भुवि खेचरेशः। सौधर्मदेवो न विशुद्धवृत्तिः शरीरसंगो ऽस्ति न देवनार्योः' ॥१०० सौधर्मकल्पाधिपतिमहात्मा सर्वाधिकश्रीदशकन्धरेण । व्यजीयतेत्यस्तधियो बुवाणा ब्रुवन्ति कोटेन जितं मृगेन्द्रम् ॥१०१ w १००) १. नरो वनिता सह न भवति । उस समय उस कैलाश पर्वतके ऊपर स्थित जिनभवनोंको विनाशसे बचानेकी इच्छासे बालि मुनिने पर्वतराजको पाँवसे पीड़ित किया-अपने पाँवके अँगूठेसे उस कैलास पर्वतको नीचे दबाया। इससे रावण उसके नीचे दबकर अतिशय रुदन करने लगा। तब बालि मुनिने अपने पाँवको संकुचित (शिथिल) करके उस लंकाके अधिपतिको 'रावण' इस सार्थक नामको प्राप्त कराया ॥१८॥ इस प्रकार उस कैलास पर्वतके उद्धारका वृत्त बालिके विषयमें प्रसिद्ध परन्तु कविनेउसकी योजना सात्यकि रुद्र-शंकर-के विषयमें की है। सो वह ठीक नहीं है, क्योंकि, मुनि सुव्रत तीर्थकरके तीर्थमें होनेवाला वह रावण तो कहाँ और अन्तिम तीर्थकर महावीरके तीर्थ में होनेवाला वह शंकर कहाँ-दोनोंका भिन्न समय होनेसे ही उक्त कथन असंगत सिद्ध होता है ॥१९॥ जो अहिल्याके अनुरागवश दूषित दीनतापूर्ण प्रवृत्तिमें रत हुआ वह भूलोकमें अवस्थित शक्र नामका एक विद्याधरोंका स्वामी था, न कि अतिशय पवित्र आचरणवाला सौधर्म-कल्पका इन्द्र। इसके अतिरिक्त देव और मनुष्य स्त्रीके मध्यमें शरीरका संयोग भी सम्भव नहीं है ॥१००॥ सर्वोत्कृष्ट लक्ष्मीसे सम्पन्न वह सौधर्म कल्पका स्वामी महात्मा इन्द्र दशमुख (रावण) के द्वारा पराजित हुआ, ऐसा कहनेवाले यह कहें कि क्षुद्र कीट-चींटी आदि के द्वारा गजराज पराजित किया गया। अभिप्राय यह कि उपर्युक्त वह कथन 'चींटीने हाथीको मार डाला' इस कथनके समान असत्य है॥१०॥ ९८) अ लंकाधिपायानि न रावणाख्यां; ब लंकाधिपासाधितरावणाख्यं; क ड लंकाधिपाया धृतरावणाख्या। ९९) ड कलो for वालो। १००) ड आहल्लयादूषि सदीन, ब क आहल्लया; अ विशुद्धि । १०१) अब्रुवन्तु ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy