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अर्मितगतिविरचिता ऊचुस्ततो द्विजा दृष्टं त्वया क्वापि यदीदृशम् । तदा व्याचक्ष्व निःशङ्कस्ततो ऽवावीन्नभश्चरः॥४६ . यो विंशतिमहाबाहुर्महाधैर्यो वशाननः । सो ऽभवद्राक्षसाधीशो विश्रुतो भुवनत्रये ॥४७ तेनाराधयता शंभुस्थेयसी भक्तिमीयुषा'। छिन्नानि करवालेन मस्तकानि नवात्मनः ॥४८ 'फुल्लाधरदलैस्तेन पूजितो मुखपङ्कजैः। ततो गौरीपतिर्भक्त्या वरार्थी कुरुते न किम् ॥४९ निजेन बाहुना श्रव्यं कृत्वा रावणहस्तकम् । संगीतं कर्तुमारेभे देवगान्धर्वमोहकम् ॥५० गौरीवदनविन्यस्ता दृष्टिमाकृष्य धूर्जटिः। विलोक्य साहसं तस्य दत्तवानीप्सितं वरम् ॥५१
४६) १. पुराणे। ४८) १. प्राप्तेन । ४९) १. विकसितोष्ठदलैः। ५०) १. मनोज्ञम् ।
इसके उत्तरमें वे ब्राह्मण बोले कि ऐसा कथन वाल्मीकिपुराणमें कहाँ है। यदि तुमने कहीं इस प्रकारका कथन देखा है तो तुम निर्भय होकर उसे कहो। इसपर मनोवेग विद्याधर इस प्रकार बोला ॥४६॥ -- जो रावण विशाल बीस भुजाओंसे सहित, अतिशय धीर और दस मुखोंसे संयुक्त था वह राक्षसोंका अधिपति हुआ है, यह तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है ॥४७॥ ... उसने स्थिर भक्तिके साथ शंकरकी आराधना करते हुए अपने नौ मस्तकोंको तलवारसे काटकर विकसित अधरोष्ठरूप पत्रोंसे सुशोभित उन मस्तकोंरूप कमलपुष्पोंके द्वारा पार्वतीके पतिकी-शंकरकी-भक्तिपूर्वक पूजा की थी। ठीक भी है-वरका अभिलाषी प्राणी किस कार्यको नहीं करता है ? वह वरकी अभिलाषासे दुष्कर कार्यको भी किया करता है ।।४८-४९॥
तत्पश्चात् अपनी भुजासे रावणहस्तकको श्रव्य करके (?) देवों व गन्धर्वोको मोहित करनेवाले संगीतको प्रारम्भ किया ॥५०॥
_ उस समय शंकरकी जो दृष्टि पार्वतीके मुखपर स्थित थी उसे उस ओरसे हटाते हुए उन्होंने उसके साहसको देखकर उसे अभीष्ट वरदान दिया ॥५१॥ ४६) अ कुतस्ततो। ४७) व महावीर्यो; अब विख्यातो for विश्रुतो। ५०) इ गन्धर्व । ५१) अ तस्या for तस्य । .... ...... .........
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