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अमितमतिविरचिता ततः पालयितुं याते सोदर्ये ऽस्मिन्नवीगणम् । दुरारोहं तमालोक्य कपित्थं चिन्तितं मया ॥३२ न शक्नोम्यहमारोढुं दुरारोहे ऽत्र पादपे । खादामि कथमेतानि बुभुक्षाक्षीणकुक्षिकः ॥३३ स्वयं च सन्मुखं गत्वा विचिन्त्येति चिरं मया। छित्त्वा शिरो निजं क्षिप्तं सर्वप्राणेन पावपे ॥३४ यथा यथा कपित्थानि स्वेच्छयात्ति शिरो मम । महासुखकरी तृप्ति गात्रं याति तथा तथा ॥३५ विलोक्य जठरं पूर्णमधस्तादेत्य मस्तके। कण्ठे निःसंधिके लग्ने गतो द्रष्टुमवीरहम् ॥३६ यावत्ततो वजामि स्म कुमारमवलोकितुम् । तावच्छयितमद्राक्षं भ्रातरं काननान्तरे ॥३७ उत्थाप्य स मया पृष्टो भ्रातर्याताः क्व मेषिकाः। तेनोक्तं मम सुप्तस्य क्वापि तात पलायिताः ॥३८
३२) १. गते । २. भ्रातरि। ३३) १. कपिस्थानि ।
तदनुसार इस भाईके भेडसमूहकी रक्षाके लिए चले जानेपर मैंने उस कैथके वृक्षको चढ़नेके लिए अशक्य देखकर यह विचार किया कि यह वृक्ष चूँकि बहुत ऊँचा है, अत एव मेरा उसके ऊपर चढ़ना कठिन है, और जब मैं उसके ऊपर चढ़ नहीं सकता हूँ तब मैं भूखसे पीड़ित होकर भी उन फलोंको कैसे खा सकता हूँ॥३२-३३।।।
इस प्रकार दीर्घकाल तक विचार करके मैंने स्वयं उसके सम्मुख जाकर अपने सिरको काट लिया और उसे सब प्राणके साथ उस वृक्षके ऊपर फेक दिया ॥३४॥ ___वह मेरा सिर जैसे-जैसे इच्छानुसार उन कैंथके फलोंको खा रहा था वैसे-वसे मेरा शरीर अतिशय सुखको उत्पन्न करनेवाली तृप्तिको प्राप्त हो रहा था ॥३५॥
इस प्रकारसे उन फलोंको खाते हुए मस्तकने जब देखा कि अब पेट भर चुका है तब वह नीचे आया और छिद्ररहित होकर कण्ठमें जुड़ गया। तत्पश्चात् मैं भेड़ोंको देखनेके लिए गया ॥३६॥ ___जैसे ही मैं कुमारको-भाईको-देखनेके लिए वहाँसे आगे बढ़ा वैसे ही मैंने भाईको बनके बीच में सोता हुआ देखा ।।३७॥
____ तब मैंने उसे उठाकर पूछा कि हे भ्रात ! भेड़ें कहाँ गयी हैं । इसपर उसने उत्तर दिया कि हे पूज्य ! मैं सो गया था, इसलिए मुझे ज्ञात नहीं है कि वे किधर भाग गयी हैं ॥३८॥ ३३) ड तु for अत्र । ३४) अ स्वयमत्र मुखं गत्वा; ब स्वयमत्तुं मुखम्; अ ड क्षिप्रं for क्षिप्तम् । ३५) व महत्सुखं । ३६) ड इ मस्तकम्; ड इ निःसंधिकं लग्नम् । ३७) अ कुमारीरवं, ब कुमारीमवं; ब काननान्तरम् । ३८) इस उत्थाप्य; अ पृष्टो पतयानाः क्व, क इरे ता for भ्रातः; इभ्रातः for तात ।