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________________ २५९ धर्मपरीक्षा-१६ वरप्रसादतो जातो यचवध्यो दिवौकसाम् । तदासौ मानवीभूय हन्यते केन रावणः॥१३ अमरा वानरीभूय निजघ्न राक्षसाधिपम् । नैषापि युज्यते भाषा नेप्सिता लभ्यते गतिः॥१४ सर्ववेदी कथं दत्ते शंकरो' वरमोदृशम् । देवानामपि दुर्वारं भुवनोपद्रवो यतः ॥१५ नार्थः परपुराणेषु चिन्त्यमानेषु दृश्यते । नवनीतं कदा तोये मथ्यमाने हि लभ्यते॥१६ शाखामृगा भवन्त्येते न सुग्रीवपुरःसराः । न लोककल्पिता मित्र रामसा रावणादयः ॥१७ विद्याविभवसंपन्ना जिनधर्मपरायणाः । शुचयो मानवाः सर्वे सदाचारा महौजसः॥१८ १३) १. देवानाम् । १५) १. क रुद्रः । २. वरात् । १६) १. सत्यार्थः। १७) १. वानराः। २.प्रमुखाः । १८) १. एते । २. महाबलाः। जो रावण शंकरके वरदानको पाकर देवताओंके द्वारा भी नहीं मारा जा सकता था वही रावण मनुष्य होकर क्या रामके द्वारा मारा जा सकता है ? नहीं मारा जाना चाहिए, अन्यथा उस वरदानकी निष्फलता अनिवार्य है ॥१३॥ यदि कदाचित् यह भी कहा जाये कि देवताओंने ही बन्दर होकर उस रावणको मारा था तो यह कहना भी योग्य नहीं हो सकता है, क्योंकि, कोई भी कभी इच्छानुसार गतिको-मनुष्य व देवादिकी अवस्थाको-नहीं प्राप्त कर सकता है ? ॥१४॥ दूसरे, जब महादेव सर्वज्ञ था तब उसने उस रावणको वैसा वरदान ही कैसे दिया, जिससे कि उसके द्वारा लोकमें किये जानेवाले उपद्रवको देव भी न रोक सकें ॥१५॥ __इस प्रकार दूसरोंके पुराणोंके विषयमें विचार करनेपर वहाँ कुछ भी तत्व अथवा लाभ नहीं देखा जाता है। ठीक भी है-पानीके मथनेपर भला मक्खन कब व किसको प्राप्त हुआ है ? वह कभी किसीको भी प्राप्त नहीं हुआ है-वह तो दहीके मथनेपर ही प्राप्त होता है, न कि पानीके मथनेपर ॥१६॥ हे मित्र! जैसी कि अन्य लोगोंने कल्पना की है, तदनुसार न तो ये सुग्रीव आदि बन्दर थे और न रावण आदि राक्षस भी थे ॥१७॥ वे सब-सुग्रीव एवं रावण आदि-विद्या व वैभव ( अथवा विद्याकी समृद्धि ) से परिपूर्ण, जैन धर्मके आराधनमें तत्पर, पवित्र, सदाचारी और अतिशय प्रतापी मनुष्य थे॥१८॥ १३) भ कि स, ब किं न for केन । १४ ) अ व निजघ्नू; ड गतिम् । १५) ब ड दुर्वारो।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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