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________________ धर्मपरीक्षा-१४ २३७ आदित्यसंगेन सुते ऽपि जाते भूयोऽपि कुन्ती भवति स्म कन्या। माता मदीया न कथं मयोदं विचारणीयं मनसा महद्भिः ॥९१ उद्दालकर्षिः सुरनिम्नगायां स्वप्ने स्वशुक्र क्षरितं गृहीत्वा। महातपाः सर्वजनप्रसिद्धश्चकार पङ्करुहपत्रसंस्थम् ॥९२ देवीव देवीभिरमा कुमारी रघोः' सखीभिर्गुणराजधानी। शरीरजा चन्द्रमतीति नाम्ना रजस्वला स्नातुमियाय गङ्गाम् ॥९३ आघ्रायमाणे कमले कुमार्याः शुक्र प्रविष्टं जठरे तदस्याः। शक्तरिवाम्भो भवति स्म गर्भ आप्यायमानो ऽखिलदेहयष्टिम ॥९४ विलोक्य तां गर्भवती सवित्र्या निवेद्यमानां तरसा क्षितीशः । निवेशयामास वनान्तराले त्रस्यन्ति सन्तो गृहदूषणेभ्यः ॥९५ मुनेनिवासे तृणबिन्दुनाम्नः सा नागकेतुं तनयं कुमारी। असूत दुर्नीतिरिवार्थनाशं विशुद्धकोतिव्यपघातहेतुम् ॥९६ ९३) १. राज्ञः। ९६) १. नाशहेतुम् । सूर्यके संयोगसे पुत्रके उत्पन्न हो जानेपर भी जब कुन्ती फिर भी कन्या बनी रही तब मेरे उत्पन्न होनेपर मेरी माता क्यों नहीं कन्या रह सकती है, यह महाजनोंको अन्तःकरणसे विचार करना चाहिए ॥११॥ महान तपस्वी व सर्व जनोंमें सुप्रसिद्ध उद्दालक ऋषिका जो वीर्य स्वप्नमें स्खलित हो गया था उसे लेकर उन्होंने गंगा नदीमें कमलपत्रके ऊपर अवस्थित कर दिया ॥९२॥ . ___उधर गुणोंकी राजधानीस्वरूप-उनकी केन्द्रभूत-व 'चन्द्रमती' नामसे प्रसिद्ध रघु राजाकी कुमारी पुत्री रजस्वला होनेपर स्नानके लिए अपनी सखियोंके साथ गंगा नदीपर गयी। वह वहाँ जाती हुई ऐसी सुशोभित हो रही थी जैसे मानो देवियोंके साथ देवी इन्द्राणी-ही जा ___ वहाँपर कुमारी चन्द्रमतीने जैसे ही उस कमलको सूंघा वैसे ही उसके ऊपर स्थित उद्दालक ऋषिका वह वीर्य उसके उदरके भीतर प्रविष्ट हो गया। इससे जिस प्रकार शुक्तिके भीतर जलके प्रविष्ट होनेपर उसके गर्भ हो जाता है उसी प्रकार वह वीर्य चन्द्रमतीके समस्त शरीरमें प्रविष्ट होकर गतिशील होता हुआ गर्भके रूपमें परिणत हो गया ।।९४|| तब उसे गर्भवती देखकर उसकी माताने इसकी सूचना राजा रघुसे की, जिससे राजाने उसे वनके मध्यमें स्थापित करा दिया। ठीक है-सत्पुरुष घरके दूषणोंसे अधिक पीड़ित हुआ करते हैं ॥२५॥ ___ तत्पश्चात् कुमारी चन्द्रमतीने तृणबिन्दु नामक मुनिके निवासस्थानमें निर्मल कीर्तिके नाशके कारणभूत नागकेतु नामक पुत्रको इस प्रकारसे उत्पन्न किया जिस प्रकार कि दुष्ट नीति धननाशको उत्पन्न किया करती है ॥१६॥ ९१) व मदीयं for मयीदम् । ९३) व देवी च । ९५) क ड इ मानस्तरसा। ९६) क नाककेतुम् ।।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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