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________________ २०४ अमितगतिविरचिता जलं हुताशे कमलं शिलातले खरे विषाणं' तिमिरं दिवाकरे। चलत्वमद्रावपि जातु जायते न सत्यता ते वचनस्य दुर्मते ॥१५ जगाव खेटः स्फुटमीवृशा वयं मृषापरास्तावदहो द्विजाः परम् । विलोक्यते किं भवदीयदर्शने न भूरिशो ऽसत्यमवायंमीदृशम् ॥१६ कलयति सकलः परगतदोषं रचयति विकलः स्वकमतपोषम् । परमिह विरलो ऽमितगतिबुद्धि प्रथयति विमलो परगुणशुद्धिम् ॥९७ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां द्वादशः परिच्छेदः॥१२॥ ९५) १. सींगडा। ९७) १. जानाति । २. करोति । ३. अज्ञानी । हे दुर्बुद्धे ! कदाचित् अग्निमें जल-शीतलता, पत्थरपर कमल, गधेके मस्तकपर सींग, सर्यके आस-पास अन्धकार और पर्वत (अचल) में अस्थिरता भी उत्पन्न हो जाये; परन्तु तेरे वचनमें कभी सत्यता नहीं हो सकती है ॥९५।। यह सुनकर विद्याधर मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो ! मैं तो स्पष्टतया निर्लज्ज व असत्यभाषी हैं, किन्तु क्या इस प्रकारका अनिवार्य बहत-सा असत्य आपके मतमें नहीं देखा जाता है ? ॥१६॥ सब ही जन दूसरेके दोषको जानते हैं और व्याकुल होकर अपने मतको पुष्ट किया करते हैं । परन्तु यहाँ ऐसा कोई विरला ही होगा जो स्वयं निर्मल होता हुआ अपरिमित ज्ञान व बुद्धिके साथ दूसरेके गुणोंकी निर्मलताको प्रसिद्ध करता हो-उसे विस्तृत करता हो ॥१७॥ इस प्रकार अमितगति विरचित धर्मपरीक्षामें बारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१२॥ ९६) अ स्फुटमत्रपा वयं । ९७) क ड इ सकलम्; अगुणसिद्धिम् ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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