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अमितगतिविरचिता
एक एव यमो देवः सत्यशौचपरायणः। 'विपक्षमर्दको धीरः समवर्ताह विद्यते ॥६५ स्थापयित्वास्य सांनिध्ये कन्यां यात्रा करोम्यहम् । ध्यात्वेति स्थापिता तेन दुहिता यमसंनिधौ ॥६६ सस्त्रीकस्तीर्थयात्राथं गतो मण्डपकौशिकः । भूत्वा निराकुलः प्राज्ञो धर्मकृत्ये प्रवर्तते ॥६७ मनोभुवतरुक्षोणी दृष्ट्वा सो समवतिना। अकारि प्रेयसी स्वस्य नास्ति रामासु निःस्पृहः॥६८ परापहारभीतेन' सा कृतोवरवतिनी। वल्लभां कामिनी कामी क्व न स्थापयते कुधोः ॥६९ कृष्ट्वा कृष्टवा' तया साधं भुक्त्वा भोगमसौ पुनः ।
गिलित्वा कुरुते ऽन्तःस्थां नाशशङ्कितमानसः ॥७० ६५) १. क शत्रु। ६६) १. क यमसंनिधौ । २. तीर्थयात्राम् । ३. मण्डपकौशिकेन । ६७) १. स्त्रिया सह। ६८) १. क पृथ्वी । ६९) १. हरण । ७०) १. निष्कास्य । २. नाशेन ।
हाँ, यहाँ एक वह यम ही ऐसा देव है जो सत्य व शौचमें तत्पर, शत्रुका मर्दन करनेवाला-पक्षपातसे रहित-है ॥६५।।
इसीके समीपमें कन्या (छाया) को स्थापित करके-छोड़ करके-मैं तीर्थयात्रा करूँगा, ऐसा विचार करके उस मण्डपकौशिकने छाया कन्याको यमके समीपमें रख दिया ॥६६॥
तत्पश्चात् मण्डप कौशिक स्त्रीके साथ तीर्थयात्राको चल दिया। ठीक है, विद्वान् मनुष्य निश्चिन्त होकर ही धर्मकार्यमें प्रवृत्त हुआ करता है ॥६॥
__उधर कामरूप वृक्षको उत्पन्न करनेके लिए पृथिवी तुल्य उस छाया कन्याको देखकर यमराजने उसे अपनी प्रियतमा बना लिया । ठीक ही है, लोकमें ऐसा कोई नहीं है जो स्त्रियोंके विषयमें निःस्पृह हो-उनमें अनुरागसे रहित हो ॥६८॥ इतना ही नहीं, अपितु कोई उसका अपहरण न कर ले इस भयसे उसने उसे उदरमें अवस्थित कर लिया। सो ठीक भी है, मूर्ख कामी काममें रत रहनेवाली प्रियतमाको कहाँपर नहीं स्थापित करता है-वह कहीं भी उचित-अनुचित स्थानमें उसे रखा करता है ॥६९॥ ___वह मनमें विनष्ट होनेके भयसे उसे देखता व पेटसे बाहर खींचकर निकालकरउसके साथ भोग भोगता और तत्पश्चात् फिरसे निगलकर पेटके भीतर ही अवस्थित कर लेता था ॥७॥ ६५) ड इ समवर्तीति । ६८) क मनोभव । ७०) अ दृष्ट्वा कृष्ट्वा ।