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________________ १७८ अमितगतिविरचिता रक्तं विज्ञाय तं दृष्टया दक्षिणापश्चिमोत्तराः। भ्रमयन्ती मनस्तस्य बभ्राम क्रमतो दिशः ॥४१ लज्जमानः स देवानां बलित्वा न निरेक्षत। लज्जाभिमानमायाभिः सुन्दरं क्रियते कुतः॥४२ तपणे वर्षसहस्रोत्यं दत्त्वा प्रत्येकमस्तधीः । एकैकस्यां स काष्ठायां विवृक्षुस्तां व्यधान्मुखम् ॥४३ भृशं सक्तदृशं दृष्ट्वा 'साररोह नभस्तलम् । योषितो रक्तचित्तानां वञ्चनां कां न कुर्वते ॥४४ पञ्चवर्षशतोत्थस्य तपसो महसा स ताम् । दिदृक्षुरकरोद् व्योम्नि रासभीयमसौ शिरः ॥४५ न बभूव तपस्तस्य न नर्तनविलोकनम् । अभूदुभयविभ्रंशो ब्रह्मणो रागसंगिनः ॥४६ ४१) १. अवलोकनेन। ४३) १. विलोकनवाञ्छया। ४४) १. तिलोत्तमा। फिर वह दृष्टिपातसे उन्हें अनुरक्त जानकर उनके मनको दक्षिण, पश्चिम और उत्तरकी ओर घुमाती हुई क्रमसे इन दिशाओंमें परिभ्रमण करने लगी ॥४१॥ उस समय ब्रह्माजीने देवोंकी ओरसे लज्जित होकर उन-उन दिशाओंकी ओर मुखको घुमाते हुए उसे नहीं देखा । ठीक है-लज्जा, अभिमान और मायाचारके कारण भला सुन्दर ( उत्तम ) कार्य कहाँसे किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता है ॥४२॥ तब उन-उन दिशाओंमें उसके देखनेकी इच्छासे उन ब्रह्माजीने बुद्धिहीन होकर एकएक हजार वर्षके उत्पन्न तपके प्रभावको देते हुए एक-एक दिशामें एक-एक मुखकी रचना की॥४३॥ इस प्रकार वह उनको अपनेमें अतिशय आसक्तदृष्टि-अत्यधिक अनुरक्त-देखकर आकाशमें ऊपर चली गई। ठीक ही है, स्त्रियाँ अपनेमें अनुरक्त हृदयवाले पुरुषोंकी कौन-सी वंचना नहीं किया करती हैं-वे उन्हें अनेक प्रकारसे ठगा ही करती हैं ॥४४॥ तब उन्होंने उसे आकाशमें देखनेकी इच्छासे पाँच सौ वर्षों में उत्पन्न तपके तेजसे गर्दभ जैसे शिरको किया ॥४५॥ इस प्रकारसे रागमें निमग्न हुए उन ब्रह्माजीका न तो तप स्थिर रह सका और न नृत्यका अवलोकन भी बन सका, प्रत्युत वे उन दोनोंसे ही भ्रष्ट हुए ॥४६॥ ४१) ब क दृष्ट्वा fr दृष्ट्या; व पश्चिमोत्तराम्; इ दश for दिशः । ४२) अ निरीक्षिता, द निरीक्षते । ४४) अ क ड इ भृशासक्तं; इ नभःस्थलम् । ४६) क संगितः।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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