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________________ १७२ अमितगतिविरचिता तेनैव' तापसाः पृष्टाः सहभुञ्जानमुत्थिताः । सारमेयमिवालोक्य कि मां यूयं निगद्यताम् ॥६ अभाषि तापसैरेष' तापसाना बहिर्भवः । कुमारब्रह्मचारी त्वमदृष्टतनयाननः ॥७ अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो न च तपो यतः। ततः पुत्रमुखं दृष्ट्वा श्रेयसे क्रियते तपः॥८ तेन गत्वा ततः कन्यां याचिताः स्वजना निजाः। वयो ऽतीततया नादुस्तस्मै तां ते कथंचन ॥९ भूयो ऽपि तापसाः पृष्टा वेगेनागत्य तेन ते। स्थविरस्य' न मे कन्यां कोऽपि दत्ते करोमि किम् ॥१० तैरुक्तं विधवां रामां संगृह्य त्वं गृही भव । नोभयोविद्यते दोष इत्युक्तं तापसागमे ॥११ ६) १. मण्डपकौशिकेन।। ७) १.क मण्डपकौशिकं प्रति। २. भूतः। ९) १. मण्डपकौशिकाय । २. ते स्वजनाः। १०) १. क वृद्धस्य। तब उसने उन तपस्वियोंसे पूछा कि तुम लोग साथमें भोजन करते हुए मुझे कुत्तेके समान देखकर क्यों उठ बैठे हो, यह बतलाओ ॥६॥ इसपर तपस्वियोंने उससे कहा कि तुमने बालब्रह्मचारी होनेसे पुत्रका मुख नहीं देखा है, अतएव तुम तपस्वियोंसे बहिर्भूत हो। इसका कारण यह है कि पुत्रहीन पुरुषकी न गति है, न उसे स्वर्ग प्राप्त हो सकता है, और न उसके तपकी भी सम्भावना है। इसीलिए पुत्रके मुखको देखकर तत्पश्चात् आत्मकल्याणके लिए तपको किया जाता है ।।७-८॥ तपस्वियोंके इन वचनोंको सुनकर उस मण्डपकौशिकने जाकर अपने आत्मीय जनोंसे कन्याकी याचना की। परन्तु विवाह योग्य अवस्थाके बीत जानेसे उसे उन्होंने किसी भी प्रकारसे कन्या नहीं दी ॥९॥ __ तब उसने शीघ्र आकर उन साधुओंसे पुनः पूछा कि वृद्ध हो जानेसे मुझे कोई भी अपनी कन्या नहीं देना चाहता, अब मैं क्या करूँ ? ॥१०॥ यह सुनकर उन तपस्वियोंने कहा कि हे तापस! तुम किसी विधवा स्त्रीको ग्रहण करके उसके साथ विवाह करके-गृहस्थ हो जाओ। ऐसा करनेसे दोनोंको कोई दोष नहीं लगता, ऐसा आगममें कहा गया है ॥११।। ९) इ कदाचन । ११) ब क ड इ क्वापि for रामां; ६) अ ते तेन। ८) ब क ड इ न तपसो यतः। इ सुखी for गृही; अ दोषमि ; इ इत्युक्तस्ता ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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