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________________ १७० अमितगतिविरचिता इत्थं न यः सत्यमपि प्रदिष्टं गृह्णाति मण्डूकसमो निकृष्टः। न तस्य तत्त्वं पटुभिनिवेद्यं कुर्वन्ति कार्य विफलं न सन्तः ॥९७ स्वजनशकुनशब्देर्वायमाणोऽपि कार्य विरचयति कुधीर्यस्ताननाकण्यं लुब्धः। पटुपटहनिनादैश्छादयित्वान्यशब्दं कृतकबधिरनामा भण्यते ऽसौ निकृष्टः॥९८ अदायकं दुष्टमति सतष्णं विबुध्यमानो ऽपि जहाति भूपम् । न यश्चिरक्लेशमवेक्षमाणः स क्लिष्टभूत्यो ऽकथि गर्हणीय': ॥९९ एभिस्तुल्या विगतमतयो ये नराः सन्ति दीनाः कार्याकार्यप्रकटनपरं वाक्यमुख़्यमानाः । नित्यां लक्ष्मी बुधजननुतामीक्ष्यमाणैरदोषस्तत्त्वं तेषाममितगतिभिर्भाषणीयं न सद्भिः॥१०० इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां दशमः परिच्छेदः ।।१०।। ९७) १. वृथा। ९८) १. स्वजनादीन्; क शब्दान् । २. अवगण्य । ३. लोभी। ४. क नोचः । ९९) १. निन्दनीयः। १००) १. स्फेटमानाः । २. क श्रेष्ठबुद्धिमहितैः। इस प्रकार जो दूसरेके द्वारा उपदिष्ट सत्यको भी ग्रहण नहीं करता है वह निकृष्ट मनुष्य मेंढक समान कहा जाता है। चतुर जनोंको उस मेंढक समान मनुष्यके लिए वस्तुस्वरूपका कथन नहीं करना चाहिए। कारण यह कि सत्पुरुष कभी निरर्थक कार्यको नहीं किया करते हैं ॥९॥ जो दुर्बुद्धि मनुष्य आत्महितैषी जनोंके शब्दों द्वारा और अशुभसूचक शब्दोंके द्वारा रोके जानेपर भी उन्हें नहीं सुनता है और लोभवश उन शब्दोंको भेरी आदिके शब्दोंसे आच्छादित करके उन्हें अभिहत करके कार्यको करता है वह निकृष्ट मनुष्य कृतकबधिर कहलाता है ।।९८॥ ___ जो सेवक राजाको न देनेवाला, दुष्टबुद्धि और लोभी जानता हुआ भी उसे नहीं छोड़ता है व दीर्घ काल तक क्लेशको सहता रहता है, वह निन्दनीय सेवक 'क्लिष्ट भृत्य' नामसे कहा गया है ।।९९।। ___ जो निकृष्ट जन इन तीन मनुष्योंके समान बुद्धिहीन होकर योग्य-अयोग्य कार्यको प्रकट करनेवाले वाक्यकी अवहेलना किया करते हैं उनके आगे विद्वान् जनोंसे स्तुत व निर्दोष ऐसी अविनश्वर लक्ष्मी-मुक्ति कान्ता-की अभिलाषा करनेवाले अपरिमित ज्ञानी सत्पुरुषोंको तत्त्वका उपदेश नहीं करना चाहिए ॥१०॥ इस प्रकार अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें दशम परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१०॥ ९७) ब विफलं समस्तः । ९९) अ ब °मपेक्षमाणः । १००) क लक्ष्मों विबुधनमितां, ब ड जननतां ; अ °मिष्यमाणैरदोषं, ब मिष्यमाणैरदोषां ; अ हि for न । ब इति दशमः परिच्छेदः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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