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________________ १६८ अमितगतिविरचिता बभाषिरे ततो द्विजा नितान्तहाससंकुलाः । विरुध्यते शठ स्फुटं परस्परं वचस्तव ॥८५ यदीयगन्धमात्रतो द्विषट्कयोजनान्तरे। व्रजन्ति तस्य मूषकैविकृत्यते' कथं श्रुतिः ॥८६ ततो जगाद खेचरो जिनाङ्घ्रिपद्मषट्पदः । किमेकदोषमात्रतो गता गुणाः परे' ऽस्य भोः ॥८७ द्विजैरवाचि दोषतो गतो ऽमुतो गुणो ऽखिलः । न कजिकैकबिन्दुना सुधा पलायते हि किम् ॥८८ खगो ऽगदत्ततो गुणा न यान्ति दोषतो ऽमृतः।। विवस्वतो' व्रजन्ति कि करास्तमोविदिताः ॥८९ वयं दरिद्रनन्दना वनेचराः पशूपमाः। भवद्धिरत्र न क्षमाः प्रजल्पितं समं बुधैः ॥९० ८६) १. भज्यते । २. कर्णकः। ८७) १. अन्ये। ८९) १. सूर्यस्य । २. राहुविमर्दात् । यह सुनकर वे ब्राह्मण अतिशय हँसी उड़ाते हुए बोले कि रे मूर्ख ! तेरा यह कथन स्पष्टतया परस्पर विरुद्ध है-जिसके गन्ध मात्रसे ही बारह योजनके भीतर स्थित चूहे भाग जाते हैं उसके कानको वे चूहे कैसे काट सकते हैं ? ।।८५-८६।। ___ इसपर जिनेन्द्रदेवके चरण कमलोंका भ्रमर-जिनेन्द्रका अतिशय भक्त-वह मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो! क्या केवल एक दोष से इसके अन्य सब गुण नष्ट हो गये ? ॥८७॥ ___ इसके उत्तरमें वे ब्राह्मण बोले कि हाँ, इस एक ही दोषसे उसके अन्य सब गुण नष्ट हो जानेवाले ही हैं। देखो, कंजिककी एक ही बँदसे क्या दूध नष्ट नहीं हो जाता है ? अवश्य नष्ट हो जाता है ।।८।। इसपर विद्याधर बोला कि इस दोषसे उसके गुण नहीं जा सकते हैं । क्या कभी राहुसे पीड़ित होकर सूर्यके किरण जाते हुए देखे गये हैं ? नहीं देखे गये हैं ।।८९|| हम निधनके पुत्र होकर पशुके समान वनमें विचरनेवाले हैं। इसीलिए हम आपजैसे विद्वानोंके साथ सम्भाषण करनेके लिए समर्थ नहीं हैं ॥१०॥ ८६) ब तदीय ; अ विकल्पते, ब विकर्त्यते, इ विकृन्तते । ८८) अ क द इ ततो for ऽमुतो; अ पयः for सुधा। ९०) अ वनेचरा अपश्चिमाः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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