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अमितगतिविरचिता जन्ममृत्युजरारोगक्रोधलोभभयान्तकः। पूर्वापरविरुद्धो नो देवो मृग्यः शिवाथिभिः ॥४९ इत्युक्तः खेचरो विनिर्जगाम ततः सुधीः। जिनेन्द्रवचनाम्भोभिनिर्मलीकृतमानसः॥५० उपेत्योपवनं मित्रमवादीदिति खेचरः। देवो ऽथं लोकसामान्यस्त्वयाश्रावि विचारतः॥५१ इदानीं श्रयतां मित्र कथयाम्यपरं तव । प्रक्रम' संशयध्वान्तविच्छेदनदिवाकरम् ॥५२ षटकाला मित्र वर्तन्ते भारते ऽत्र यथाक्रमम् । स्वस्वभावेन संपन्नाः सर्वदा ऋतवो यथा ॥५३ शलाकापुरुषास्तत्र चतुर्थे समये ऽभवन् । त्रिषष्टिपरिमा मान्याः शशाङ्कोज्ज्वलकीर्तयः ॥५४
५१) १. लोकसदृश । २. अश्रूयत । ५२) १. क कथानकम् । ५३) १. सुषमसुषमकाल १, सुषमकाल २, सुखमदुःखमकाल ३, दुःखमसुखमकाल ४, दुःखमकाल
५, अतिदुःखमकाल ६, तेहना अनेकभेदः । २. संयुक्ताः। ५४) १. क तस्मिन् चतुर्थकाले।
जो विवेकी जन अपने कल्याणको चाहते हैं उन्हें जन्म, मरण, जरा, रोग, क्रोध, लोभ और भयके नाशक तथा पूर्वापरविरोधसे रहित वचनसे संयुक्त ( अविरुद्धभाषी ) देवको खोजना चाहिए ॥४९॥
ब्राह्मणोंके इस प्रकार कहनेपर वह विद्वान् विद्याधर (मनोवेग ) जिनेन्द्र भगवान्के वचनरूप जलसे अतिशय निर्मल किये गये मनसे संयुक्त होता हुआ वहाँसे चल दिया ॥५०॥
पश्चात् वह विद्याधर उपवनके समीप आकर मित्र पवनवेगसे इस प्रकार बोलाहे मित्र ! यह जो देव अन्य साधारण लोगोंके समान है उसका विचार किया गया है और उसे तूने सुना है । अब मैं अन्य प्रसंगको कहता हूँ, उसे सुन । वह तेरे संशयरूप अन्धकारके नष्ट करने में सूर्यका काम करेगा ॥५१-५२।।
हे मित्र ! अपने-अपने स्वभावसे संयुक्त जिस प्रकार छह ऋतुओंकी क्रमशः यहाँ प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार इस भारतवर्ष में अपने-अपने स्वभावसे संयुक्त इन छह कालोंकी क्रमशः प्रवृत्ति होती है-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा ॥५३॥
उनमेंसे चतुर्थ कालमें श्रेष्ठ, सम्माननीय और चन्द्रके समान निर्मल कीर्तिके विस्तृत करनेवाले तिरेसठ (६३ ) शलाकापुरुष हुआ करते हैं ।।१४।। ४९) वजराक्रोधलोभमोहभया; अ क ड इ विरोधेन । ५१) क विचारितः । ५३) ब क ड इ स्वस्वस्वभावसंपन्नाः; ब सर्वदामृतवो। ५४) क ड इ शलाकाः ; अ त्रिषष्टिः ; अ ड इ परमा।