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धर्मपरीक्षा-१०
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अभाषिष्ट ततः खेटः शङ्का चेतसि मे द्विजाः। अद्यापि विद्यते सूक्ष्मा स्ववाक्याग्रहशङ्किनः॥५ नासन शलं यस्य नोग्रता शिरयन्त्रिका न नवं पुस्तकं श्रेष्ठो न भव्यो योगपट्टकः॥६ न पादुकायुगं रम्यं न वेषो लोकरञ्जकः। न तस्य जल्पतो लोकैः प्रमाणीक्रियते वचः॥७ नादरं कुरुते कोऽपि निर्वेषस्य जगत्त्रये। आडम्बराणि पूज्यन्ते सर्वत्र न गुणा जनैः॥८ विप्रास्ततो वदन्ति स्म मा भैषोः प्रस्तुतं' वद । चविते चर्वणं कतं युज्यते न महात्मनाम् ॥९ मनोवेगस्ततो ऽवादीद्यद्येवं द्विजपुंगवाः। पूर्वापरविचारं मे कृत्वा स्वीक्रियतां वचः ॥१०
५) १. मम वाक्यम् अनस्वीकारतः । ६) १. क सिंहासनम् । २. कोमलं; क मनोहरम् । ३. टोपी। ४. मनोज्ञः ।। ९) १. क यत्प्रारब्धम् ।
तत्पश्चात् मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो! अपने वचनके ग्रहणमें शंका रखनेवाले मुझे मनमें अभी भी थोड़ा-सा भय बना हुआ है। कारण यह है कि जिसके पास कोमल आसन ( अथवा उत्तम भोजन ), उन्नत शिरयन्त्रिका-पगड़ी अथवा चोटी, नवीन व श्रेष्ठ पुस्तक, सुन्दर योगपट्टक-ध्यानके योग्य वस्त्रविशेष, रमणीय खड़ाउओंका जोड़ा और लोगोंको अनुरंजित करनेवाला वेष नहीं है; उसके कथनको लोग प्रमाणभूत नहीं मानते हैं ॥५-७।।
इसके अतिरिक्त वेषसे रहित मनुष्यका आदर तीनों लोकोंमें कोई भी नहीं करता। मनुष्य सर्वत्र आटोप (टीम-दाम, वाहरी दिखावा) की ही पूजा किया करते हैं, गुणोंकी पूजा वे नहीं किया करते ॥८॥
इसपर वे विद्वान् ब्राह्मण बोले कि तुम भयभीत न होकर प्रस्तुत बातको-भारत व रामायण आदिमें उपलब्ध होनेवाला रत्नालंकारों से विभूषित तृण-काष्ठके विक्रेताओंके वृत्तको-कहो। कारण यह कि कोई भी महापुरुष चबाये हुए अन्नादिको पुनः-पुनः चबानाएक ही बातको बार-बार कहना-योग्य नहीं मानता है ॥२॥
उनके इस प्रकार कहनेपर मनोवेग बोला कि यदि ऐसा है तो हे श्रेष्ठ, ब्राह्मणो ! मेरे कथनको पूर्वापर विचारके साथ स्वीकार कीजिए ॥१०॥
५) ब वाक्यग्रह। ६) अ नाशनं; ब क ड शरयन्त्रिकाः ; अ ब ड नवः पुस्तकः । ८) ब निर्विषस्य । - ९) अ महात्मना।