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________________ धर्मपरीक्षा-८ १३५ स्मरं जितस्वगिगणं जिगाय यः कथं न सो ऽस्मान् तरसा विजेष्यते। इतीव भीता बलिनः क्रुधादयः सिषेविरे यं न महापराक्रमम् ।।८३ तपांसि भेजे न तमांसि यः सदा कथा बभाषे विकथा न निन्विताः । जघान दोषान्न गुणाननेकशो मुमोच निद्रां न जिनेन्द्रभारतीम् ॥८४ चकार यो विश्वजनीनशासनः समस्तलोकप्रतिबोधमञ्जसा। विबुद्धनिःशेषचराचरस्थितिजिनेन्द्रवद्देवनरेन्द्रवन्दितः ॥८५ निवारिताक्षप्रसरो ऽपि तत्त्वतः पदार्थजातं' निखिलं विलोकते ॥ प्रपालितस्थावरजङ्गमोऽपि यश्चकार बाढं विषयप्रमर्दनम् ॥८६ गुणावनद्धौ' पदपङ्कजप्लवावपारसंसारपयोधितारको। ववन्दिरे तस्य मुनीश्वरस्य ते वसुंधरापृष्ठनिविष्टमस्तकाः ॥८७ ८३) १. यः मुनिः । २. ज्ञात्वा ( ? ) । ३. दोषाः । ४. नाश्रितवन्तः । ५. मुनिम् । ८४) १. सेवे न। ८५) १. विश्वजनेभ्यो हितं विश्वजनीनम् । विश्वजनीनं शासनम् आज्ञा यस्यासौ । ८६) १. वस्तुसमूहम् । ८७) १. गुणैनिबन्धो[द्धौ] ; क युक्तो। २. यानपात्रम् ; क चरणकमलप्रवहणी । ३. क ते चत्वारो मूर्खाः। जिस मुनिने देवसमूहको जीतनेवाले कामदेवको जीत लिया है वह हम सबको शीघ्र ही जीत लेगा, ऐसा विचार करके ही मानो बलवान् क्रोधादि शत्रुओंने अतिशय भयभीत होकर उस महापराक्रमी मुनिकी सेवा नहीं की। तात्पर्य यह कि उक्त मुनिने कामके साथ ही क्रोधादि कषायोंको भी जीत लिया था ॥८३ __वह मुनि तपोंका आराधन करता था, परन्तु अज्ञान अन्धकारका आराधना कभी नहीं करता था। वह धर्मकथाओंका वर्णन तो करता था, किन्तु स्त्रीकथा आदिरूप अप्रशस्त विकथाओंका वर्णन नहीं करता था; वह अनेकों दोषोंको तो नष्ट करता था, किन्तु गुणोंको नष्ट नहीं करता था, तथा उसने निद्राको तो छोड़ दिया था, किन्तु जिनवाणीको नहीं छोड़ा था ॥८४॥ जिनेन्द्र के समान इन्द्रों व चक्रवर्तीसे वन्दित उस मुनिने समस्त चराचर लोककी स्थितिको जानकर सब ही प्राणियोंको प्रतिबोधित कर विश्वका हित करनेवाले आगम (उपदेश) को किया था ॥८५॥ वह मुनीन्द्र इन्द्रियोंके व्यापारको रोक करके भी समस्त पदार्थसमूहको प्रत्यक्ष देखता था-अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके द्वारा समस्त पदार्थोंको स्पष्टतासे जानता था, तथा स्थावर व त्रस प्राणियोंका संरक्षण करके भी विषय-भोगोंका अतिशय खण्डन करता था-इन्द्रिय विषयोंको वह सर्वथा नष्ट कर चुका था ॥८६॥ उपर्युक्त चारों मूखोंने उस मुनीन्द्रके उन दोनों चरण-कमलरूप नौका की पृथिवी पृष्ठपर मस्तक रखकर वन्दना की जो कि गुणोंसे सम्बद्ध होकर प्राणियोंको संसाररूप समुद्रसे पार उतारनेवाले थे ॥८७॥ ८३) ब जिगेष्यते for विजेष्यते; अ अतीव भीता। ८४) ब कदा for सदा; अ गुणाननेनसः ।।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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