________________
धर्मपरीक्षा-८
१३१
साधो गृहाण को दोषस्ते नोक्त्वेति विचेतसा। आदाय दारुसंदोहं वितोणं वाणिजाय तत् ॥६१ वणिजागत्य वेगेन घर्षित्वा बुद्धिशालिना। विलिप्तो भूपतेर्देहश्चन्दनेनामुनाभितः ॥६२ तस्य स्पर्शेन निःशेषस्तापो राज्ञः पलायितः। इष्टस्येव कलत्रस्य दुरुच्छेदो वियोगिनः॥६३ पूजितो वाणिजो राज्ञा दत्त्वा भाषितमञ्जसा। उपकारो गरिष्ठानां कल्पवृक्षायते कृतः॥६४ काष्ठप्रसादतः पूजां वाणिजस्य निशम्य ताम् । स' शिरस्ताडमाक्रन्दीद्रजकः शोकतापितः॥६५ आगत्य ज्ञायमानेन विमोद्य वणिजा ततः। हा कथं वञ्चितो ऽनेन यमेनेव दुरात्मना ॥६६ निम्बमुक्त्वा गृहीतं मे गोशीर्ष चन्दनं कथम् । यमो ऽपि वञ्च्यते नूनं वाणिजः सत्यमोचिभिः ॥६७
६१) १. रजकेन। ६५) १. रजकः । ६७) १. मम।
यह सुनकर 'हे सज्जन ! तुम इसे ले लो, इसमें क्या हानि है' यह कहते हुए उस विवेकशून्य धोबीने बदलेमें अन्य लकड़ियोंके समुदायको लेकर वह लकड़ी वैश्यको दे दी ॥६१।।
तत्पश्चात् उस बुद्धिमान् वैश्यने शीघ्र आकर उस लकड़ीको घिसा और उस चन्दनसे राजाके शरीरको सब ओरसे लिप्त कर दिया ॥६२।।
उसके स्पर्शसे राजाका वह समस्त ज्वर इस प्रकार नष्ट हो गया जिस प्रकार कि अभीष्ट कान्ताके स्पर्शसे वियोगी जनोंका दुर्विनाश कामज्वर नष्ट हो जाता है ॥६३॥
तब राजाने घोषणाके अनुसार वैश्यको ग्रामादिको देकर वस्तुतः उसकी पूजा की। ठीक ही है, श्रेष्ठ पुरुषोंके द्वारा किया गया उपक्रम कल्पवृक्षके समान फलप्रद हुआ करता है ॥६४॥
इस प्रकार उस लकड़ीके प्रभावसे वैश्यकी उक्त पूजाको सुनकर धोबी शोकसे अतिशय सन्तप्त हुआ, तब वह अपना सिर पीटकर विलाप करने लगा ॥६५।।
वह आकर बोला कि यही वह परिचित वैश्य है । खेद है कि इसने मुझे मूर्ख बनाकर दुरात्मा यमके समान कैसे ठग लिया, इसने नीम कहकर मेरे गोशीर्ष चन्दनको कैसे ले लिया। निश्चयसे ये असत्यभाषी वैश्य यमराजको भी ठग सकते हैं ॥६६-६७।।
६१) ब तेनोक्तन; अ आहार्य दारु; ब इ वणिजाय; अ यत्, ड तम् । ६४) अ ब वरिष्ठानां । ६६) अ विमुह्य, इ विनोद्य; क ड बत for ततः ।