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________________ ११२ अमितगतिविरचिता यथा भवति भद्रायं चूतो भूरिफलप्रदः। तथा कुरुष्व नीत्वा त्वं रोपयस्व वनान्तरे ॥३७ नत्वोक्त्वैवं करोमीति वृक्षवृद्धिविशारदः । से व्यवीवृधदारोप्य वनमध्ये विधानतः॥३८ सो ऽजायत महांश्चूतो भूरिभिः खचितः फलैः। सत्त्वाह्लादकरः सद्यः सच्छायः सज्जनोपमः ॥३९ पक्षिणा नीयमानस्य सर्पस्य पतिता वसा'। एकस्याथ तदीयस्य फलस्योपरि देवतः ॥४० तस्याः समस्तनिन्द्यायाः संगेन तेदपच्यत । नेत्रानन्दकरं हृद्यं जराया इवै यौवनम् ॥४१ ३८) १. वनपालः। ४०) १. गरल; क त्वक् । ४१) १. क त्वचः। २. क आम्रफलम् । ३. क यथा । ४. क पच्यते । कराता हूँ; ऐसा सोचकर राजाने उसे वनपालको दे दिया और उससे कहा कि हे भद्र ! जिस प्रकारसे यह आम्रफल बहुत फलोंको देनेवाला होता है वैसा कार्य करो-इसे ले जाकर तुम अपने किसी वनमें लगा दो ॥३५-३७।। ___यह सुनकर वृक्षोंके बढ़ानेमें निपुण उस वनपालने राजाको नमस्कार करके उसे ले लिया और यह कहकर कि ऐसा ही करता हूँ, उसने उसे विधिपूर्वक वनके भीतर लगा दिया और बढ़ाने लगा ॥३८॥ इस प्रकारसे उस आम्र वृक्षने सज्जनके समान शीघ्र ही महानताका रूप धारण कर लिया-जिस प्रकार सज्जन बहुत-से फूलोंसे-पूजा आदिसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादिके उत्पादक पुण्यसे युक्त होता है उसी प्रकार वह वृक्ष भी बहुत-से आम्रफलोंसे व्याप्त हो गया था, जिस प्रकार सज्जन मनुष्य प्राणियोंको आनन्दित किया करता है उसी प्रकार वह वृक्ष भी प्राणियोंको आनन्दित करता था, तथा जिस प्रकार सज्जन समीचीन छाया (कान्ति) से सुशोभित होता है उसी प्रकार वह विशाल वृक्ष भी समीचीन छायासे सुशोभित था ।।३९॥ उस समय एक पक्षी सर्पको ले जा रहा था । भाग्यवश उसकी चर्बी उक्त आम्रवृक्षके एक फलके ऊपर गिर गयी ॥४०॥ सब प्रकारसे निन्दनीय उस चर्बीके संयोगसे वह नेत्रोंको आनन्द देनेवाला मनोहर फल इस प्रकारसे पक गया जिस प्रकारसे जराके संयोगसे यौवन पक जाता है ॥४१॥ ३७) ब भद्रोयं । ३९) ब भूरिभी रचितः; ड इ स त्वाह्लाद । ४१) ब जरया ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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