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अमितगतिविरचिता
यो ऽववद्ध षणं लौहं मस्तके तं जघान से। 'व्युग्राहितमतिर्नीचः सुन्दरं कुरुते कुतः ॥१२ सुन्दरं मन्यते प्राप्तं यः स्वेष्टस्य वचस्तदा । परस्यासुन्दरं सर्व केनासौ बोध्यते ऽधमः ॥१३ यो जात्यन्धसमो मढः परवाक्याविचारकः। स व्युद्ग्राही मतः प्राज्ञैः स्वकीयाग्रहसक्तधोः ॥१४ शक्यते मन्दरो' भेत्तुं जातु पाणिप्रहारतः । प्रतिबोधयितुं शक्यो व्युद्ग्राही न च वाक्यतः ॥१५ अज्ञानान्धः शुभं हित्वा गृह्णीते वस्त्वसुन्दरम् । जात्यन्ध इव सौवर्ण दोनो भूषणमायसम् ॥१६ प्रपद्यते सदा मुग्धो यः सुन्दरमसुन्दरम् । उच्यते पुरतस्तस्यं न प्राज्ञेन सुभाषितम् ॥१७
१२) १. क जात्यन्धः । २. क हठग्राही। १३) १. स्वसंबन्धिनः । २. विज्ञाप्यते। १५) १. मेरु। १६) १. लोहमयम् । १७) १. मुग्धस्य । २. क सुवचनम् ।
__ उसके समक्ष जो भी उस आभूषणको लोहेका कहता वह उसके मस्तकपर उस लोहदण्डका प्रहार करता। ठीक है-जिस नीच मनुष्यकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न करा दिया गया है जो बहका दिया गया है-वह अच्छा कार्य कहाँसे कर सकता है ? नहीं कर सकता है ॥१२॥
जो निकृष्ट मनुष्य प्राप्त हुए अपने इष्ट जनके कथनको तो उत्तम मानता है तथा दूसरेके सब कथनको बुरा समझता है उसे भला कौन समझा सकता है ? ऐसे दुराग्रही मनुष्यको कोई भी नहीं समझा सकता है ॥१३॥
जो मूर्ख उस जात्यन्ध कुमारके समान दूसरेके वचनपर विचार नहीं करता है और अपने दुराग्रहमें ही बुद्धिको आसक्त करता है उसे पण्डित जन व्युग्राही मानते हैं ॥१४॥
कदाचित् हाथकी ठोकरसे मेरु पर्वतको भेदा जा सकता है, परन्तु वचनों द्वारा कभी व्युग्राही मनुष्यको प्रतिबोधित नहीं किया जा सकता है ॥१५॥
जिस प्रकार उस दीन जात्यन्ध कुमारने सुवर्णके भूषणको छोड़कर लोहेके भूषणको लिया उसी प्रकार अज्ञानसे अन्धा मनुष्य उत्तम वस्तुको छोड़कर निरन्तर हीन वस्तुको ग्रहण किया करता है ॥१६॥
जो मूर्ख मनुष्य सुन्दर वस्तुको निकृष्ट मानता है उसके आगे बुद्धिमान पुरुष सुन्दर भाषण नहीं करता है ॥१७॥
१२) अ ब ड इ लोहं। १३) ब बोध्यते ततः । १४) अशक्तिधीः ।