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________________ [७] एवं वे कथितो मूढो विवेकविकलो द्विजाः । स्वाभिप्रायग्रहालोढो व्युद्ग्राही कथ्यते ऽधुना ॥१ अथासौ नन्दुरद्वायर्या पार्थिवो दुर्धरो ऽभवत् । जात्यन्धस्तनुजस्तस्य जात्यन्धो ऽजनि नामतः ॥२ हारकङ्कणकेयूरकुण्डलादिविभूषणम् । याचकेभ्यः शरीरस्थं स प्रादत्त दिने दिने ॥३ तस्यालोक्य जनातीतं' मन्त्री त्यागेमभाषत । कुमारेण प्रभो सर्वः कोशो दत्त्वा विनाशितः॥४ ततो ऽवादीन्नृपो नास्य दीयते यवि भूषणम् । न जेमति तदा साधो सर्वथा कि करोम्यहम् ॥५ १) १. क युष्मान् । २. ग्रसितः । २) १. नाम्ना। ३) १.[अ] दधात् । ४) १.क लोकाधिकम् । २. क दानम् । ५) १. हे। हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे विवेकहीन मूढका वृत्तान्त कहा है। अब अपने अभिप्रायके ग्रहणमें दुराग्रह रखनेवाले व्युग्राही पुरुषका स्वरूप कहा जाता है ॥१॥ नन्दुरद्वारी नगरीमें वह एक दुर्धर नामका राजा था, जिसके कि जन्मसे अन्धा एक जात्यन्ध नामका पुत्र उत्पन्न हुआ था ॥२॥ वह पुत्र प्रतिदिन अपने शरीरपर स्थित हार, कंकण, केयूर और कुण्डल आदि आभूषणोंको याचकोंके लिए दे दिया करता था ॥३॥ उसके इस अपूर्व दानको देखकर मन्त्री राजासे बोला कि हे स्वामिन् ! कुमारने दान देकर सब खजानेको नष्ट कर दिया है ॥४॥ ___ यह सुनकर राजा बोला कि हे सज्जन! यदि इसको भूषण न दिया जाये तो वह किसी प्रकार भी भोजन नहीं करता है, इसके लिए मैं क्या करूँ ?॥५॥ १) अ द्विजः; ब स्वाभिप्रायी, स्वाभिप्रायो। अ adds after 1st verse : युष्माकमिति मूढो ऽयं संक्षेपेण निवेदितः। अधुनाकर्ण्यतां विप्रा व्युद्ग्राहीति निवेद्यते ॥२॥ २) अ नन्दुराद्वार्यां; अ जात्यन्धस्तनयो यस्य, ब जात्यन्धोऽङ्गजो यस्य । ३) अ प्रदत्ते, इ प्रादाच्च । ४) अ विभो ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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