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________________ १०१ धर्मपरीक्षा-६ लालानिष्ठीवनश्लेष्मवन्तकोटादिसंकुलम् । शशाङ्केन' कथं वक्त्रं विदग्धैरुपैमीयते ॥७१ कथं सुवर्णकुम्भाभ्यां मांसग्रन्थी गंडूपमौ । तादृशौ निशितप्रनिगद्येते पयोधरौ ॥७२ स्त्रीपुंसयोर्मतः संगः सर्वाशुचिनिधानयोः । विचित्ररन्ध्रयोदक्षरमेध्यघटयोरिव ॥७३ निपात्य कामिनीनद्या रागकल्लोलसंपदा। निक्षिप्यन्ते भवाम्भोधौ नायनायं' नरद्रुमाः ॥७४ विमोह्य पुरुषानीचानिक्षिप्य नरकालये। न याति या समं रामा सेव्यते सा कथं बुधैः ॥७५ हुताशे इव काष्ठं ये प्लोषन्ते हृदयं खलाः। जन्यमानाः सदा भोगास्तैः समा रिपवः कुतः ॥७६ ७१) १. क चन्द्रेण; सह । २. क मुखम् । ३. विद्भिः ; क पण्डितैः । ४. क उपमा कथं क्रियते । ७२) १. व्रणशिखरोपमौ। ७४) १. क नीत्वा नीत्वा । ७५) १. सह। ७६) १. अग्निः । २. क भोगाः । ३. क दह्यन्ते । ४. क वर्तन्ते । लार, थूक, कफ और दाँतोंके कीड़ोंसे व्याप्त स्त्रीके मुखके लिए चतुर कवि चन्द्रकी उपमा कैसे दिया करते हैं ? ॥७१॥ ___ मांसकी गाँठोंके समान जो स्त्रीके दोनों स्तन मिट्टी आदिके लौंधोंके समान (अथवा फोड़ोंके समान) हैं उन्हें तीक्ष्ण बुद्धिवाले कवि सुवर्णके घड़ों के समान कैसे बतलाते हैं ? ॥७२॥ सम्पूर्ण अपवित्रताके स्थानभूत स्त्री और पुरुषके छेदों (जननेन्द्रियों) के सयोगको चतुर पुरुष अपवित्र (मलसे परिपूर्ण) दो घड़ोंके संयोगके समान मानते हैं ।।७३।। रागरूप लहरोंसे सम्पन्न स्त्रीरूपी नदी पुरुषरूप वृक्षोंको उखाड़कर बार-बार ले जाती है और संसाररूप समुद्र में फेंक देती है ।।७४।। जो स्त्री नीच पुरुषोंको अनुरक्त करके नरकरूप घर ( नारकबिल ) में पटक देती है और स्वयं साथमें नहीं जाती है उसका सेवन विद्वान् मनुष्य कैसे किया करते हैं ? अर्थात् विवेकी जनोंको उसका सेवन करना उचित नहीं है ।।७।। जिस प्रकार अग्नि लकड़ीको जलाया करती है उसी प्रकार उत्पन्न होनेवाले दुष्ट भोग निरन्तर हृदयको जलाया करते हैं-सन्तप्त किया करते हैं। उनके समान शत्रु कहाँसे हो सकते हैं ? अर्थात् वे विषयभोग शत्रुकी अपेक्षा भी प्राणीका अधिक अहित करनेवाले हैं ॥७६।। ७२) अ गुडूपमौ, क ड इ गडोपमी; अ सदृशौ न शितप्रज', क निहतप्राज', डइ निहितप्राज; र निगद्यन्ते । ७५) ब यन्ति for याति । ७६) ब हुताशा इव ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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