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धर्मपरीक्षा-६ एवं तयोर्दृढप्रेमपाशयन्त्रितचेतसोः। रताब्धिमग्नयोस्तत्र गतं मासचतुष्टयम् ॥३५ .... अवादीदेकदा यज्ञा यज्ञं प्रेमभरालसा । त्वमद्य दृश्यसे म्लानः किं प्रभो मम कथ्यताम् ॥३६ सो ऽवोचबहवः कान्ते प्रयाता' मम वासराः। विष्णोरिव श्रिया सौख्यं भुञानस्य त्वया समम् ॥३७ इदानी तन्वि वर्तन्ते 'भट्टागमनवासराः। किं करोमि क्व गच्छामि त्वां विहाय मनःप्रियाम् ॥३८ 'विपत्तिमहती स्थाने याने पादौ न गच्छतः । इतस्तटमितो व्याघ्रः किं करोमि द्वयाश्रयः ॥३९ तमवादीत्ततो यज्ञा स्वस्थीभव शुचं त्यज ।
मा कार्करन्यथा चेतो मदीयं कुरु भाषितम् ।।४० ३५) १. क निश्चलप्रेमनिबद्धमानसोः [ सयोः] । ३७) १. क गताः । ३८) १. भतूं। ३९) १. आपदा । २. मम।
फिर भला जो बटुक कामके उन्मादसे सहित, ब्रह्मचर्यसे पीड़ित-स्त्री सुखसे वंचितऔर युवावस्थाको प्राप्त था वह एकान्तमें दूसरेकी स्त्री ( यज्ञा) को पा करके क्या क्षोभको नहीं प्राप्त होता ? उसका क्षोभको प्राप्त होना अनिवार्य था ॥३४॥
___ इस प्रकार जिनका मन दृढ़ प्रेमपाशमें जकड़ चुका था ऐसे उन दोनों ( यज्ञा और बटुक ) के विषयसुखरूप समुद्रमें मग्न होते हुए वहाँ चार मास बीत चुके थे ।।३५।। ... एक समय उस बटुक यज्ञके प्रेमभारसे आलस्यको प्राप्त हुई यज्ञा उससे बोली कि, हे स्वामिन् ! आज तुम खिन्न क्यों दिखते हो, यह मुझसे कहो ॥३६॥
यह सुनकर वह बोला कि हे प्रिये ! लक्ष्मीके साथ सुखका उपभोग करते हुए विष्णुके समान तुम्हारे साथ सुखको भोगते हुए मेरे बहुत दिन बीत चुके हैं ॥३७॥
हे कृशोदरी ! अब इस समय भट्ट (भूतमति ) के आनेके दिन हैं। इसलिए मनको आह्लादित करनेवाली तुमको छोड़कर मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? ॥३८॥
यदि मैं इसी स्थानमें रहता हूँ तब तो यहाँ अब आपत्ति बहुत है और अन्यत्र जानेमें पाँव नहीं चलते हैं तुम्हारे बिना अन्यत्र जानेका जी नहीं चाहता है। इधर किनारा है और उधर व्याघ्र है, इन दोनोंके मध्यमें स्थित मैं अब क्या करूँ ? ॥३९॥
इसपर यज्ञा बोली कि, तुम शोकको छोड़कर स्वस्थ होओ और अन्यथा विचार न करो। बल्कि, मैं जो कहती हूँ उसको करो ॥४०॥ ३६) ब ग्लानः किं । ३८) क ड ते विवर्तन्ते । ३९) अ ब इतस्तटमतो ।