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________________ ८८ अमितगतिविरचिता न भुङ्क्ते न शेते विनान्यस्य चिन्तां न लक्ष्मी विसोढुं क्षमो यो ऽन्यदीयाम् । महाद्वेषवत्राग्निदग्धाशयो ऽसौ न लोकद्वये ऽप्येति सौख्यं पवित्रम् ॥९५ ज्वलन्तं दुरन्तं स्थिरं श्वभ्रर्वाह्न प्रविश्य क्षमन्ते चिरं स्थातुमज्ञाः । न संपत्तिमन्यस्य नीचा विसोढुं सदा द्विष्टचित्ता निकृष्टाः कनिष्ठाः ॥९६ यो विहाय वचनं हितमज्ञः स्वीकरोति विपरीतमशेषम् । नास्य दुष्टहृदयस्य पुरस्ताद्भाषते 'ऽमितगतिर्वचनानि ॥९७ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां पञ्चमः परिच्छेदः ॥५ ९५) १. दुःखदानं विना । २. द्रष्टुम् । ९६) १. हीनाः । ९७) १. अप्रमितबुद्धिः । वह मनमें 'महान् वैररूप वज्राग्निसे जलता हुआ दूसरेकी विभूतिको न सह सकने के कारण केवल दूसरेके विनाशका चिन्तन करता है । इसको छोड़कर वह न खाता है, नसता है, और न दोनों ही लोकोंमें पवित्र ( निराकुल ) सुखको भी प्राप्त होता है ||१५|| इस प्रकारके अधम हीन अज्ञानी जन चित्तमें निरन्तर विद्वेषको धारण करते हुए नीच वृत्तिसे जलती हुई दुःसह व स्थिर नरकरूप अग्निमें प्रविष्ट होकर वहाँ चिरकाल तक रहने में तो समर्थ होते हैं, किन्तु वे दूसरेकी सम्पत्तिके सहने में समर्थ नहीं होते हैं ॥९६॥ जो अज्ञानी मनुष्य हितकारक वचनको छोड़कर विपरीत सब कुछ स्वीकार करता है उस दुष्टचित्त मनुष्यके आगे विद्वान् मनुष्य वचनोंको नहीं बोलता है - उसके लिए उपदेश नहीं करता है ||९७|| इस प्रकार अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें पाँचवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ||५|| ९५) अविनाशस्य । ९६ ) इ चिरं for स्थिरं; ब वज्रवह्नि; क ड दुष्ट for द्विष्ट; क कुनिष्टाः, ड विनिष्टाः for कनिष्ठाः । ९७ ) अ हितमन्यः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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