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________________ अमितगतिविरचिता सा विहस्य सुभगा पुनरूचे मन्यते स यदि मां स्फुटमिष्टाम् । वाक्यतो मम तदा महनीये भोक्ष्यते तव गृहे कुरु भोज्यम् ॥९२ वाक्यमेतदवगम्य तदीयं सा ससा विविधं शुभमन्नम् । सज्जना हि सकलं निजतुल्यं प्राञ्जलं विगणयन्ति जनौघम् ॥९३ छद्मना निजगृहं धनहीनं सान्यगृहयदलक्षितदोषा। छादयन्ति वनिता निकृतिस्था दूषणानि सकलानि निजानि ॥२४ धर्ममार्गमपहाय निहीना सा ववञ्च पतिमुल्बणदोषा। पापिनो हि न कदाचन जीवा जानते ऽमितगति भवदुःखम् ॥९५ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां चतुर्थः परिच्छेदः॥४ ९३) १. क ज्ञात्वा । २. रन्धयामास । ३. क प्राञ्जलं सरलं ऋजुरित्यमरः । ९४) १. क आच्छादयत् । २. क कपटस्था; मायासहिता। ९५) १. क नीचा।२ क कुरङ्गी। यह सुनकर कुरंगीने कुछ हँसकर फिरसे कहा कि हे पूज्ये ! यदि वह सचमुचमें मुझे प्यारी मानता है तो मेरे कहनेसे वह तुम्हारे घरपर भोजन करेगा। तुम भोजनको बनाओ ॥१२॥ तब सुन्दरीने उसके इस वाक्यको सुनकर अनेक प्रकारका उत्तम भोजन बनाया। ठीक है-सज्जन मनुष्य समस्त जनसमूहको अपने समान ही सरल समझते हैं ।।१३।। इस प्रकारसे उस कुरंगीने अपने दोषको गुप्त रखकर छलपूर्वक अपने उस धनहीन घरको प्रगट नहीं होने दिया। ठीक है-मायाव्यवहारमें निरत स्त्रियाँ अपने सब दोष आच्छादित किया करती हैं ॥१४॥ इस प्रकार भयंकर दोषोंसे परिपूर्ण उस अधम कुरंगीने धर्म के मार्गको छोड़कर पतिको धोखेमें रखा। ठीक है-पापी जीव कभी अपरिमित गतियों में घूमनेके दुखको नहीं जानते हैं ॥१५॥ इस प्रकार अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें चतुर्थ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४॥ ९२ ) क इ भोज्यते। ९४ ) इ न्यगूह्य दल'....सकलानि धनानि । ९५ ) क ड इ विहीना ; इ किमु for हि न; ब ड ऽमितगतिभ्रमदुःखं ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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