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श्री विजयपद्मसूरिविरचितः “पउमेणायरिएणं"-विहियं लच्छीप्पहस्स पढणढें ॥ अह सिरितवपयथवणं-पज्जतेऽहं पणेस्मामि ॥ ७५ ॥
॥ श्री सम्यग्तपःपदस्तोत्रम् ॥
॥ आर्यावृत्तम् ॥ समरिय चारित्तपयं-महप्पहावं च णेमिमूरिपयं ॥ वरतवपयस्स थुत्तं-रएमि सिरिसिद्धचक्कगयं ॥ १॥ सीलयरुमेहतुल्लं-सग्गपवग्गिकसिट्टयाणनिहं ॥ कम्मिंधणदाहग्गि-दुहयमयणछायणपिहाणं ॥ २॥ कुसलकमलदिणयरकर-विग्घलयाछेयतिक्खकरवालं ॥ संण्णत्ति निणियाणं-थुणमि तवगुणं पमोएणं ॥३॥ अणलो जह रसपागे-घडुब्भवे मट्टिया वसणभावे॥ इह तंतुणो नियाणं-तह दुरियपणासणम्मि तवो ॥४॥ सरियद्धिं विणयजुयं-विज्झा मिलए जहा तहा लद्धी॥ तवसाहगं मिलेंते-विजयइ करणासखलिणतवो ॥५॥ सोहइ खारो वसणं-जलमंग कंचणं जहेवग्गी॥ अंजणमक्खि जीव-खंतिजुयतवो तह ण्णेओ ॥६॥ कारणकज्जसहावो-एएमु विवण्णिओ सुयहरेहिं ॥ नासइ सिट्ठतवगुणो-निकाइयाइपि कम्माइं ॥७॥