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प्राकृतस्तोत्रप्रकाशः
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गुणणंदणिहिंदुसमे, सिरिगोयमकेवलत्तिपुण्ण दिणे ॥ वरेजिणसासणरसिए, जइणउरीरायणयरंमि ॥ ३४ ॥ रयणा चरियस्स कया, गुरुवरसिरिणेमिसरिसीसेणं॥ पउमेणायरिएण, पियंकरस्समणपढणटं ॥ ३५ ॥
श्री सरस्वती विंशिका ॥
॥ आर्यावृत्तम् ॥ सिरिकेसरियाणाहं, थुणिअ गुरुं पुज्जणेमिमूरिवरं ॥ सज्झायमोयदक्खं, पणेमि सिरिसारयाथुत्तं ॥१॥ जिणवइवयणणिवासा, दुरियविणासा तिलोयकयथवणा ॥ सुगुणरयणमंजूसा, देउ मई सारया विउलं ॥२॥ सिरिगीयमपयभत्ता, पवयणभत्तंगिभव्यणिवहस्स ॥ विग्घुड्डावणसीला, देउ मई सारया विउलं ॥३॥ मुक्कज्झयणुस्साहा, हयासया देवि ! तं विहाणेणं ॥ सरिऊण पीइभावा, कुणंति पढणं महुरसाहा ॥४॥ दिव्याहरणविहूसा, पसप्णवयणा विसुद्धसम्मत्ता ॥ सुयसंघपसंतिपयरी, देउ मई सारया विसयं ॥५॥ जीए झाणं विमलं, थिरचित्तेणं कुणंति मृरिवरा ॥ पत्थाणसरणका ले, वरया सा सारया होउ ॥६॥