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प्राकृतस्तोत्रप्रकाशः
॥ आर्यावृत्तम् ॥ वासाचउमासीओ-बायालीसं च संजमदिणाओ ॥ जेणं विहिणा विहिया-तं वीरपहुं सया वंदे ॥२२॥ अट्ठण्हं सुमिणाणं-परूवियं णिवइपुण्णपालस्स ।। जेणं च जहत्थफलं-तं वीरपहुं सया वंदे ॥ २३ ॥ एअस्स पेमबंधो-झिज्जइ इय देवसम्मबोहडे । गोयमसामी जेणं-पट्टविओ तं पहुं वंदे ॥ २४ ॥ गिहवासे वरिसाई-तीसं पक्खाहिए य सड्ढे य ॥ जाव दुवालसवरिसे-जस्स य छउमत्थपरियाओ ॥२५॥ तेरसपक्खोणाई-तीसं वासाइ केवलित्तेणं ॥ विहरित्ता सव्वाउं-बावत्तरिवासपरिमाणं ॥ २६ ॥ पालित्तस्सिण मासेऽ-मावासीए निसाइ पज्जंते ॥ साइपवरण व खत्ते-कयपज्जंकासणो सामी ॥ २७ ॥ जीवियवड्ढणपण्हे-अवि सक्का णो कयावि वड्ढेउं ॥ जिणया आउयकम्मं-इय कहिऊणं समाहाणं ॥ २८ ॥ जा सोलसपहराइं-अचंतिमदेसणं च दाऊणं ॥ किच्चा जोगनिरोहं-सेलेसीभावसंपण्णो ॥ २९ ॥ सेसाघाइविणासा-साइअणंतेण भंगसमएणं ॥ पत्तो जो निव्वाणं-तं वीरपहं सया वंदे ॥ ३० ॥ कयमयणदावसंति-मणमोरघणं पसण्णमुहकमलं ॥ दसणमलपक्खाले-जलधारासंनिहं सुहयं ॥ ३१॥