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________________ ६८ ९५. तदथ वां कथनं परिमन्यतां, जिनमतं जगतां परितन्यताम् । हृदयतोषकरं च तथोच्यतामविदितं विदितं विदितं वचः ॥ 'मुनिवर्य ! आप हमारी बात मानें और जिनेश्वर देव के अभिमत का संसार में विस्तार करें । अब आप हमारे हृदय में तोष पैदा करने वाला परिपूर्ण, प्रसिद्ध और ज्ञात वचन कहें ।' ९६. तवुपगत्य तयोर्निजदीक्षयाऽवितवृहद्धतिनो हितसञ्चितम् । पिहितवान् प्रकृतं प्रथितं तपो नृवृषभो वृषभो वृषभोपमः ॥ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् तब धर्म की प्रभा से उद्दीप्त, नरों में श्रेष्ठ तथा धोरी वृषभ की उपमा को धारण करने वाले मुनिप्रवर ने अपने बड़े संतों के हित-गर्भित वचनों का आदर करते हुए अपना तपोनुष्ठान स्थगित कर दिया । ९७. गुणगणग्रहणैककृतादरो, गुणनिधिर्गणिभिक्षुमुनीश्वरः । धृतिबलं प्रबलय्य जिनं मतं, वितनुतेऽतनुतेजउदित्वरः ॥ वे गुणनिधि, गुण समूह को आदर से ग्रहण करने वाले एवं अपने तेज के उत्कर्ष से चारों ओर उदित होने वाले भिक्षुगणिराज धृतिबल को प्रबल कर जिनमत को फैलाने में जुट पड़े । ९८. उपविशत्ययमार्ह तमार्मिक सुकृतसंसरणं तरणात्मकम् । पोह्य समूह्य सहिष्णुतां, वसुधियां सुधियां सुधियां प्रभुः ॥ अष्ट बुद्धि के धारक वृहस्पति के तुल्य तथा विद्वानों एवं विचारकों स्वामी आचार्य भिक्षु भयमुक्त होकर तथा सहिष्णुता को धारण कर अरिहंत प्रभु के तरणात्मक एवं मार्मिक सुकृत-पथ का उपदेश देने लगे । ९९. वितथसम्भृतसन्तमसोत्करं जनजनेषु तिरस्कुरुते कृती । दशशतांशुरिवात्मिक तेजसा, विवृजिनोऽवृजिनोऽवृजिनोजितः * ॥ 1 १. अखंडितम् । २. प्रसिद्धम् । . जैसे सूर्य अपने ही तेज से संसार में व्याप्त अन्धकार का नाश करता है वैसे ही संक्लेश एवं कपट रहित तथा धर्म के ओजस्वी महामुनि जन-जन में व्याप्त मिथ्यात्व अन्धकार को अपने ही तेज से दूर करने लगे । ३. ज्ञातम् । ४. वृजिन: - केशे, वृजिनं - भुग्नेऽघे रक्तचर्मणि । क्लेशेऽपि वृजिनः ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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