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९५. तदथ वां कथनं परिमन्यतां, जिनमतं जगतां परितन्यताम् । हृदयतोषकरं च तथोच्यतामविदितं विदितं विदितं वचः ॥
'मुनिवर्य ! आप हमारी बात मानें और जिनेश्वर देव के अभिमत का संसार में विस्तार करें । अब आप हमारे हृदय में तोष पैदा करने वाला परिपूर्ण, प्रसिद्ध और ज्ञात वचन कहें ।'
९६. तवुपगत्य तयोर्निजदीक्षयाऽवितवृहद्धतिनो हितसञ्चितम् । पिहितवान् प्रकृतं प्रथितं तपो नृवृषभो वृषभो वृषभोपमः ॥
श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
तब धर्म की प्रभा से उद्दीप्त, नरों में श्रेष्ठ तथा धोरी वृषभ की उपमा को धारण करने वाले मुनिप्रवर ने अपने बड़े संतों के हित-गर्भित वचनों का आदर करते हुए अपना तपोनुष्ठान स्थगित कर दिया ।
९७. गुणगणग्रहणैककृतादरो,
गुणनिधिर्गणिभिक्षुमुनीश्वरः । धृतिबलं प्रबलय्य जिनं मतं, वितनुतेऽतनुतेजउदित्वरः ॥
वे गुणनिधि, गुण समूह को आदर से ग्रहण करने वाले एवं अपने तेज के उत्कर्ष से चारों ओर उदित होने वाले भिक्षुगणिराज धृतिबल को प्रबल कर जिनमत को फैलाने में जुट पड़े ।
९८. उपविशत्ययमार्ह तमार्मिक सुकृतसंसरणं
तरणात्मकम् ।
पोह्य समूह्य सहिष्णुतां, वसुधियां सुधियां सुधियां प्रभुः ॥ अष्ट बुद्धि के धारक वृहस्पति के तुल्य तथा विद्वानों एवं विचारकों स्वामी आचार्य भिक्षु भयमुक्त होकर तथा सहिष्णुता को धारण कर अरिहंत प्रभु के तरणात्मक एवं मार्मिक सुकृत-पथ का उपदेश देने लगे ।
९९. वितथसम्भृतसन्तमसोत्करं जनजनेषु तिरस्कुरुते कृती । दशशतांशुरिवात्मिक तेजसा, विवृजिनोऽवृजिनोऽवृजिनोजितः * ॥
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१. अखंडितम् । २. प्रसिद्धम् ।
. जैसे सूर्य अपने ही तेज से संसार में व्याप्त अन्धकार का नाश करता है वैसे ही संक्लेश एवं कपट रहित तथा धर्म के ओजस्वी महामुनि जन-जन
में व्याप्त मिथ्यात्व अन्धकार को अपने ही तेज से दूर करने लगे ।
३. ज्ञातम् ।
४. वृजिन: - केशे, वृजिनं - भुग्नेऽघे रक्तचर्मणि । क्लेशेऽपि वृजिनः ।