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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ११५. यस्यैव दृष्टिरजनिष्ट सदा सदृक्षा,
भिक्षाचरे क्षितिपतावपि देवराजे । भक्तेप्यभक्तिमति वारिमुचां प्रवृष्टिरिक्षोर्वनेऽर्कविपिने च यथा यथार्या ॥
'जंसे मेघ इक्षुवन में और अर्कवन में समान बरसता है, वैसे ही आचार्य भिक्षु की दृष्टि देवराज इन्द्र के प्रति तथा सामान्य राजा के प्रति तथा भक्त और अभक्त के प्रति सदा सदृश रहती है।' ११६. सन्ध्यामरागमिव चञ्चलचञ्चलाभ
मावेदयन् भवमचञ्चलतां च मुक्तेः । उद्भावयत्यसुमतो निजगोत्रवृद्धो, यो वंशजानिव यथार्थहिताहितार्थम् ॥
'जैसे अपने गोत्र में वृद्ध पुरुष अपने वंशजों को यथार्थ एवं हित की शिक्षाएं देते हैं वैसे ही हमारे गुरु भव्य प्राणियों को यह उपदेश देते हैं कि यह संसार संध्या की लालिमा के समान चञ्चल है। एक मोक्ष ही अचञ्चल है अर्थात् वह शाश्वत सुखों की खान है ।
११७. यस्मिन् परे निरवधौ निवसन्ति मग्ना,
मीनवजा इव दुरुद्धरमोहमुग्धाः । तस्माद् भवोदकनिधेः पृथगेव योस्ति, जम्बालयुक्तसलिलादिव पुण्डरीकम् ॥
'जसे समुद्र में मत्स्यगण निमग्न रहते हैं, वैसे ही संसारी प्राणी दुर्धर मोह के असीम समुद्र में निमग्न रहते हैं। अमात्य महोदय ! हमारे गुरु ऐसे भव समुद्र से पृथक् ही रहते हैं जैसे कर्दमयुक्त पानी से कमल पृथक् ही रहता है, निलिप्त रहता है ।' ११८. बिभ्यन् मृगाक्षीनयनान्तरङ्गोत्सङ्गे प्रणयुत्क'क टाक्षबाणः ।
नाविश्यतान्तःकरणे च यस्याऽलोके यथा भानुकरैः कदापि ॥
"स्त्रियों के नयनों के अन्तभागरूप नाटयस्थल की गोद में नाचते हुए चंचल कटाक्ष-वाण स्वयं भयभीत होते हुए, भिक्षु के अन्तःकरण में वैसे ही प्रवेश नहीं पा सके जैसे अलोक में सूर्य की किरणें ।' ११९. संसारमार्गभ्रमणोद्भवेन, व्यामोहयित्राखिलमोहभाजाम् ।
संसर्गदोषेण यतः प्रणष्टं, नागेन नागान्तकृतो यचैव ॥ १. प्रकर्षेण णति:-नर्तनं, तस्मिन् उत्कायाः । २. अत ऊवं उपजातिछन्दः ।