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________________ श्रीभि महाकाव्यम् 'वे अर्हत् प्रभु के पवित्र सिद्धांतों में श्रुतकेवली के समान, जिनेश्वर भगवान के वादी-मुनियों की तरह वादनिपुण, आचार-पालन की विधि में गुरु गौतम के समान और इस युग के आचार्यों में युगप्रधान आचार्य हैं।' १००. प्राजननामसमलङ्कतसर्वकार्यः, . सत्याही न च कदापि कदाग्रही यः । हापाभितो न न परेऽपि च रूढीवादात्, सर्वत्र हंस इव विवेककारी ॥ वे अपने सभी कार्य जैन नाम से करने वाले और सत्यग्रही तथा कदाग्रह से दूर रहने वाले हैं। वे रूढ़ीवादी भी नहीं हैं और न रूढी से परे भी हैं । वे विशुद्धरूप से हंस के विवेक (क्षीर-नीर विवेक) से संपन्न हैं। १०१. नो किञ्चिदैक्यमवलोक्य समन्वयार्थी, यस्मात् कञ्चिदखिला विषमाः समा वा। योऽतो विशेषणपुरः सकलार्थवादी, स्यान्नान्यथा स्विह परद्वय'कार्यसिद्धिः॥ वे किञ्चित् ऐक्य को देखकर समन्वय के अर्थी नहीं हैं, क्योंकि सभी पदार्थ विषम भी हैं एवं सम भी हैं। इसीलिये उन्होंने विशेषणपूर्वक समस्त अर्थों का कथन किया, जैसे-निरवद्य दान, निरवद्य दया आदि । यदि ऐसा न हो तो निश्चय और व्यवहार तथा लोक और लोकोत्तर की सिद्धि नहीं हो सकती। १०२. उत्तीर्णकाञ्चननिमं स्फुटमूर्ध्वमौलि, शैलोत्तमं प्रगुणरत्नगणप्रकाण्डम् ।' ऊध्वंदमं स्थिरतरं च सुदर्शनाख्यं, यं सथिता इव सदा विबुधाः सुमेरम् ॥ जैसे मेरुपर्वत विशुद्ध कंचनमय, ऊंचे शिखरों वाला, पर्वतों में उत्तम, रत्नधारकों में श्रेष्ठ, अत्यंत ऊंचा, स्थिर, सुदर्शन नाम से प्रसिद्ध तथा देवताओं द्वारा आसेवित है, वैसे ही आचार्य भिक्षु भी कंचन की भांति निर्मल, अपने गौरव से ऊंचे तथा निश्चल, सुदर्शन-सुन्दर और तात्विक दर्शन का प्रतिपादन करने वाले और विबुध-विद्वानों द्वारा आसेवित हैं। १. निश्चयव्यवहारयोः कार्ययोः । २. प्रकाण्डम्-श्रेष्ठ (अभि० ६७७)
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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