SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवां सर्ग ११ स्वामीजी के दर्शन के लिए मानो इन्द्र ने अपना छत्र नीचे रख दिया हो और वही छत्र दण्ड से अलग हो हवा से प्रेरित होकर आकाश में उड़ता हुआ चन्द्र के रूप में चमक रहा हो ! अथवा यह आकाश - लक्ष्मी का दर्पण एवं चलता-फिरता सुधा का कुण्ड हो ! ४३. स्वजीवनाशं तपनेन्दिरां तां, विज्ञाय नष्टां भयतः स्विकायाः । ततो सहन्त्या हसनं रजन्याश्चकास्ति वा चन्द्रमसोऽम्बरे किम् ॥ मेरे भय से यह सूर्य की लक्ष्मी नष्ट हो गई है, यह देखकर मानो रजनी हंस पड़ी । मानो वह हास्य ही आकाश में चन्द्र के रूप में चमक रहा हो ! ४४. कि चन्द्रचूर्णैर्वसुधा प्रपूर्णा, मुक्ताफलोधैर्झटिता च किं वा । पीयूषपूर: किमुवाभिषिक्ता, किं कौमुदीभिर्धवलीकृता भात् ॥ मुदी से धवलित धरा को देखकर यह लग रहा था मानो प्रकृति ने मुनि के भाव चारित्र की खुशियों में कर्पूर से या गोशीर्ष चन्दन से धरा को लीप दिया हो अथवा मुक्ता फलों से उसे जटित कर दिया हो या पीयूष पूर से अभिषिक्त कर दिया हो । ४५. दीपाङ्गजातस्य सुवृत्तचारुयशोविलासैः परितः स्फुरद्भिः । चन्दोज्ज्वलंश्चन्वित चन्द्रिकाभिर्द्यावापृथिव्यौ निभृते विभातः ॥ दीपाङ्गज के चारों ओर स्फुरित चन्द्रमा के समान उज्ज्वल शुद्धसाधुत्व के यशोविलास के साथ-साथ देदीप्यमान चन्द्रिका से धरा एवं आकाश -दोनों उद्योतित हो रहे थे । ४६. अथः शुचेर्मासिकपूर्णिमाया, आवश्यकं भावविधविधाय । क्षमापनां च क्षमणं समस्तैः, प्रदर्शनोन्मुक्तविवेकशुद्धया ॥ तब स्वामीजी ने आषाढ शुक्ला पूर्णिमा की रात्रि में विधिपूर्वक भाव आवश्यक संपन्न कर, प्रदर्शन रहित एवं विवेक की शुद्धि द्वारा समस्त जीवों से 'खमतखामणा' - क्षमायाचना की और सबको क्षमा प्रदान की । ४७. बाह्यः प्रकाशः प्रमयोत्थितः कि, क्षणं क्षणं घोरवधो हि येभ्यः । झगझगिन विमिश्र सम्यग्ज्ञालोकमालासु विराजमानः ॥ हिंसा से उत्पन्न एवं हिंसामय बाह्य प्रकाश से क्या ? इससे तो प्रतिक्षण घोर वध ही होता है । इसीलिए आचार्य भिक्षु झिलमिल करती हुईकिरणों से मिश्रित सम्यग् ज्ञानरूप आलोकमाला में ही विराजमान हो गए।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy