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________________ ग्यारहवां सर्ग तब नीरज आकाश-मार्ग में किरणों से मिश्रित देदीप्यमान तारे । शोभित होने लगे। ऐसा लग रहा था मानो रात्री ने आते . हुये अपने पति चंद्रमा के पथ में फूल ही फूल बिछा दिये हों। ३२. द्यावापृथिव्योनिभृतं पदव्योर्मदोद्धरं ध्वान्तरि विजेतुम् । राजानमायान्तमवेत्य विज्ञास्ताराः स्थिताः किं पृतनोपमानाः॥ अब अपना स्वामी-निशापति चन्द्रमा आने वाला है इसीलिए पृथ्वी एवं आकाश में व्याप्त, अत्यन्त बिस्तृत अंधकार रूपी शत्रु को जीतने के लिए, मानो वे विज्ञ तारे सैनिकों की तरह आकाश में दिखाई दे रहे थे। ३३. भिक्षोरुपास्त्यै समुपायियासोः, प्रागेव राज्ञः सुतरां प्रकृत्या। स्थातुं च हीराञ्चितमासनं किं, विस्तारितं तारकिताभ्रदम्भात् ॥ ... ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ताराओं से व्याप्त नभ के बहाने भिक्षु के उपासनार्थ आये हुये अपने स्वामी चन्द्रमा के लिए मानो प्रकृति ने हीरे जटित. आसन ही बिछा दिया हो। ३४. महर्षिभिक्षोश्चरणानुरागान्, मालां परिस्फोरयतोऽम्बरस्य । करात् सुधांश्वागमनोत्सुकत्वात्, किं तत्त्रुटत्सन्मणयो हि ताराः॥ ऐसा लग रहा था कि महर्षि भिक्षु के चरणानुराग से माला फेरते.. : हुए आकाश के हाथ से, चन्द्रमा के आने की उत्सुकता में, माला टूट गई हो और सारे मनके ताराओं का रूप धारण कर आकाश में चमक रहे हों। ३५. शुन्यं त्वशुन्यं भवितुं विहायो, मथ्नाति किं तस्य यशःसुधाब्धिम् । ततः कणास्तस्य समुच्छलन्तः, कीर्णा हि ते ते खलु तारताराः ।। __ यह शून्य आकाश अशून्य बनने के लिए आचार्य भिक्षु के यशःसमुद्र का - मंथन कर रहा था । मंथन करते समय जो कण ऊपर उछले शायद वे कण ही ताराओं के रूप में आकाश में चमक रहे थे। ३६. नीलाम्बरः पुष्कर एष वृद्धः, स्वर्दण्डवण्डी हमरत्वकाङ्क्षी। भिक्षोः पुरो भिक्षुकवृत्तितोऽगान्, नक्षत्रमालामवलम्ब्य कण्ठे ॥ यह वृद्ध आकाश मानो नीलाम्बर को धारण कर, स्वर्दण्ड हाथ में ले, नक्षत्र रूप माला को गले में धारण कर अमर बनने का अभिलाषी होता.:: हुआ भिक्षुकवृत्ति से आचार्य भिक्षु के पास आकर खड़ा हो गया हो ऐसा प्रतीत हो रहा था।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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