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________________ ५ प्रचुर प्रयत्न करने के पश्चात् उन्हें गांव के बाह्यभाग में स्थित एक - लघु स्थान मिला । वह 'अंधेरी ओरी' के नाम से प्रसिद्ध था । वह स्थान दिन में भी लोगों के लिए भयावह था । वह 'अंधेरी ओरी' रात्री में सूर्य, चांद, ग्रह, दीपक आदि की किरणों द्वारा निरस्त एवं भयभ्रांत होते हुए अंधकार को ही शरण देने वाली थी । अथवा 'स्थानस्थ शत्रु बलवान् होता 'है' - ऐसा सोचकर मानो सभी प्रकाश वहां से चले गए । अथवा समस्त प्रकाश रूप शत्रुओं को जीतने के लिए अंधकार रूप दुर्ग का निर्माण कर वह 'अंधेरी ओरी' तमिस्र गुफा की बहिन तथा अमावस्या की छोटी बालिका- सी प्रतीत हो रही थी । उसमें कहीं पर भी जालिका नहीं थी । तथा सार सुधारस को बरसानेवाले एवं शशक लांछन वाले अत्रीपुत्र चन्द्रमा की पत्नी 'चन्द्रिका के भय से परिवाण - विकल और कहीं पर भी स्थान न मिलने के कारण पलायन कर आई हुई गर्मी को वह स्थान त्राण देने वाला था अर्थात् उस अंधेरी ओरी में भयंकर गर्मी थी । वह अंधेरी ओरी मानवजाति के संघर्षण, उत्पीड़न और उपमर्दन के भय से अपनी रक्षा के लिए मानो चौबीस तीर्थंकर के छोटे-छोटे मंदिरों से संवृत होकर अथवा अपने बचाव के लिए प्रभु के मंदिर के पीछे जा बैठी हो, ऐसा लग रहा था । 'मेरे यहां कोई आना चाहे तो वह पहले के बिना प्रवेश नहीं कर सकता' - इसको चरितार्थ करने के लिए मानो मंदिर के मुख्य द्वार के मध्य में एक पुष्ट शिलाखंड स्थापित था । 'जो व्यक्ति इस स्थान में रात्रीवास करता है वह जीवित नहीं रहता'इस प्रसिद्धि से उग्ररूपवाली, भयदात्री तथा महान् आश्चर्य उत्पन्न करने वाली वह 'अंधेरी ओरी' थी । ग्यारहव १४. मृत्योरभीको हृतजीविताशो, मोक्षैकसम्बन्धितदिव्यदृष्टिः । निस्त्रिशधारोपमसंयमार्थी, न्युवास तत्रैव जितेन्द्रियोऽसौ ॥ मृत्यु के भय से निर्भीक, जीने की आशा से विप्रमुक्त, केवल मोक्ष के प्रति अपनी दिव्य दृष्टि को सम्बन्धित रखने वाले, तीक्ष्ण खड्गधारा से उपमित संयम के अर्थी तथा जितेन्द्रिय वे महापुरुष आचार्य भिक्षु अपना चातुर्मास बिताने के लिए वहां 'अंधेरी ओरी' में ठहर गए । - १५. उद्योतकं सौकृतविष्टपस्य, स्वतोप्युदात्तातिशयोपपेतम् । दृष्ट्वा प्रकाशप्रकरातिदेशात्, किरन् प्रमोदं च निजान्तरीयम् ॥ १६. मध्येम्बरं स्फूर्जदशेषतेजाः स्थितः सहस्रान् स्वकरान् वितत्य । यहियुग्मं युगतारकाहं, स्प्रष्टुं समुस्कः किमु पद्मबन्धुः ॥ (युग्मम्)
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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