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________________ २७० श्रीभिनुमहाकाव्यम् नास्तिकता से ओतप्रोत व्यक्ति भी उस समय आस्तिक बन कर अत्यंत प्रसन्न हुए। अमृतवर्षी बादल के जल से सिंचन पाकर क्या असर भूमि भी हरी-भरी नहीं बन जाती ? ६. किञ्च यमे नियमे निहितं स्यादेवमुदाहरणे कुशला ये। तेऽपि नमस्कृतिपूर्वकमेत्याधुः शपयान विविधान् स्वयमेव ॥ 'यम, नियम और त्याग-वैराग्य में क्या धरा है'-ऐसा कहने वाले वाचाल लोगों ने भी आपको उस समय नमस्कार कर स्वतः अनेक प्रकार की प्रतिज्ञाएं ग्रहण की। ७. ये मुनिदर्शनतः प्रतिकूला, द्रष्टुमिमं खलु तेऽत्यनुकूलाः । यन्त्रमनेष कुतूहलकारास्तेऽत्र नता; प्रस्तुतसत्काराः ॥ साधु-दर्शन के विरोधियों ने भी आपके दर्शन का पूरा-पूरा समर्थन किया और साधु-वन्दन आदि क्रियाओं का उपहास करने वाले व्यक्ति स्वयं आपका सम्मान करते हुए श्रीचरणों में नत हो गए। ८. यन्मुखदर्शनतोऽपि निजं येऽमंसत तीव्रमपावनरूपम् । सम्प्रति तेऽपि यदह्रिरजःसंस्पर्शनतो हि भवन्ति कृतार्थाः॥ आपके मुख-दर्शन मात्र से ही अपना घोर पापोदय मानने वाले लोग भी आज आपके चरणरज का स्पर्श कर लेने मात्र से अपना अहोभाग्य मानने लगे। ९. तन्निकटे बहुशो जनयूषा, भूरि मुदा विरचय्य सुदृष्टिम् । मन्तुगणान् क्षमितुं समयामिविज्ञपयन्ति विनम्रमतेन ॥ आपके निकट नर-नारियों के अनेक समूह आते और हर्ष से बारबार दर्शन करते हुए आपसे अपने अपराधों को क्षान्ति से क्षमा करने की विनम्र प्रार्थना करते। १०. त्याग इहोच्चतमश्च विरागोऽनं प्रविभिद्य ववर्ष वृषोऽपि । तस्य विलोकनतः किमु सर्वे, तेन समा अभवन् प्रविरक्ताः॥ वहां उस समय ऐसा प्रतीत हुआ कि उच्चतम त्याग, वैराग्य और धर्म आकाश को फाडकर नीचे बरस रहा हो और वैराग्यमूर्ति आचार्य भिक्षु के दर्शन मात्र से ही सब लोग उनके समान ही विरक्त बन गए।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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