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________________ २६४ १९४. स्वदेहसारं स समाचकर्षे, दानीं तदर्थं तवसारवस्तु । हैयङ्गवीने स्ववशोपनीते, यथा हि तकं जगतां निरर्थम् ॥ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् आपने अपने शरीर का सार-सार खींच लिया। अब आपके लिए वह शरीर असार वस्तु से अधिक नहीं रहा । दही से नवनीत प्राप्त करने के पश्चात् शेष बची छाछ प्राणियों के लिए निस्सार होती है । १९५. यावत्तनुः संयमतासहायो, द्रव्यासुवत्तत् सुधृतं च तावत् । जातं प्रतीपं परिहर्तुकामो, विनोदये दीपकवत्तदानीम् ॥ जब तक यह शरीर संयम का सहायक रहा, मैंने इसे द्रव्य प्राणों की तरह ही धारण करके रखा, पर अब यह इससे प्रतिकूल हो रहा है तो मैं इसे वैसे ही छोड़ देना चाहता हूं जैसे सूर्योदय हो जाने पर दीपक को हटा दिया जाता है ! १९६. अयोगिवद् योगविदां वरस्य विभीषिका तस्य न कापि मृत्योः । महोत्सवः पण्डितमृत्यवे च, शैलेश्यवस्थषिवदप्रकरूपः ॥ अयोगी की तरह ही इन योगीराज को भी मृत्यु का कोई भय नहीं था । प्रत्युत उन्हें पण्डित मरण का महान् हर्ष था । वे मृत्यु से वैसे ही अप्रकम्प थे जैसे शैलेषी अवस्था वाला मुनि अप्रकंप होता है । १९७. यद्यत् कृतं तच्च तदात्मसाक्षीपूर्व महावीरवचोभिरक्ष्य । अतः फले तस्य न कापि शङ्का, न्यायर्त्तवाणिज्यवतो यथा हि ॥ उन्होंने जो कुछ भी किया, भगवान् के वचनों को आगे रखकर आत्मसाक्षी पूर्वक ही किया । अतः उसके शुभ फल में तो शंका हो ही क्या सकती है ? जैसे न्याय और सचाई से व्यापार करने वाले व्यापारी को व्यापार में लाभ की आशंका नहीं होती । १९८. तद्द्वादशीखावि सुसोमवारेऽपक्वापणात् सन्मुखपदवहट्टे । शृङ्गेऽन्यशृङ्गाद्धरिवत्समागाद्, विस्तारिता शिष्यगणेन शय्या ॥ शैल के एक शिखर से दूसरे शिखर पर जाते हुए केसरीसिंह की तरह ही आप उस द्वादशी के दिन कच्ची हाट से पक्की हाट में पधार गये और वहीं पर शिष्यों ने आपके लिए बिछौना कर दिया । १९९० सुष्वाप तत्रैव महानुभावो, महासमाधिष्ठ विशिष्टयोगः । मन्ये श्रमाच्छान्तरसो हि साक्षादाराम मिच्छुविरराम किञ्चित् ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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