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________________ सप्तदशः सर्गः १५४. सिद्धान्तसिद्धानियमा मया ये बमञ्जरे प्राभवदुर्मदेन । स्वर्गापवर्गात्ममुखाः पदार्थाः, प्रमाणसिद्धा इव नास्तिकेन ॥ स्वर्ग, अपवर्ग, आत्मा आदि तत्त्व प्रमाणसिद्ध हैं । परन्तु एक नास्तिक इन्हें स्वीकार नहीं करता। वैसे ही यदि मैंने सिद्धान्त में प्रतिपादित नियमों का प्रभुता के अहंकार से ग्रस्त होकर उल्लंघन किया हो, उन्हें स्वीकार न किया हो तो मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो । १५५. अणुव्रताः सूर्यमिताश्चिरत्ना', व्यपेक्षया पञ्चमहाव्रतानाम् । तदप्रचारापपथप्रलापान्, मयापराद्धं तदरातिनेव ॥ २५७ पांच महाव्रतों की अपेक्षा छोटे होने के कारण श्रावकों के व्रत अणुव्रत कहलाते हैं । 'प्राचीन हैं । सूर्य के बारह मंडलों की भांति ये भी बारह हैं । एक शत्रु की तरह अपराध कर यदि मैंने इनका प्रचार न किया हो अथवा अपप्रचार किया हो तो मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । १५६. कल्याणकोदृस्य निदानकेषु, योगेषु योगीन्द्र इवोत्तमेषु । वीर्य प्रयोक्ता न बभूव लोकानन्दी सुधाहं सुविधाभिलाषी ॥ यदि व्यर्थ में ही मैंने लोकरञ्जन और सुविधावाद के दृष्टिकोण से कल्याणरूपी दुर्ग के कारणभूत पवित्र योगों में योगीन्द्र की तरह शक्ति का प्रयोग न किया हो तो मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो । प्रकार से अथवा १५७. पूर्वोक्तमन्यच्च यथा तथात्राsसूत्र व्यधायोदमघं कदाचित् । जिनेन्द्रसाक्ष्या विमलाशयेन, निन्दाम्यहं तत् त्रिविधेन सर्वम् ॥ पूर्वोक्त प्रकारों से तथा उनसे भिन्न अन्य किसी भी इहलोक या परलोक संबंधी मैंने कोई भी पाप किया हो तो आज मैं निर्मलचित्त होकर भगवत् साक्षी से उस पाप की तीन करण और तीन योग से निन्दा करता हूं । १५८. अर्ह निषिद्धे भुवनाद्भुतार्थे, स्वापेक्षया बालकवद् विलासात् । द्रष्टाऽभवं दर्शनलम्पटीव, जुगुप्सयामि त्रिविधेन बुद्धवा || मुनि को नाटक आदि देखना अरिहंत देव द्वारा निषिद्ध है। इस जगत् में होने वाले अद्भुत नाटक, कौतुक आदि को अपनी अपेक्षा जोड़कर, बालक की तरह लालायित होकर तथा दर्शनलंपटी बनकर मैंने देखा हो तो मैं ज्ञानपूर्वक तीन करण तीन योग से उसकी गर्हा करता हूं । १. चिरत्नम् - प्राचीन ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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