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________________ २५४ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् भ्रमर वृत्ति से जीवन यापन करने वाले, कच्छप की तरह इन्द्रियों का गोपन करने वाले, सच्चरित्र की आराधना करने वाले तथा ज्योतिष के शुभ लग्नों की तरह ही कल्याण में मग्न रहने वाले शरणभूत साधुओं की मुझे शरण हो। १३८. बुडज्जनानां भवभीमसिन्धौ, साक्षात्करालम्ब इवातिसज्जः । वधत्सुधांशुः सुसुधामिवान्तर्दयां स धर्मः शरणं ममास्तु ॥ जन्ममरण रूप भयंकर संसार समुद्र में डूबते हुए प्राणियों को साक्षात् हस्तावलम्बन देने के लिए सदा सज्जीभूत तथा अमृत को धारण करने वाले चन्द्रमा की तरह अपने भीतर दया को धारण करने वाले धर्म की मुझे शरण हो। १३९. बोधेष्टकालप्रमुखातिचारा, धर्म विशुद्धे मम वा प्रमादाः । शङ्कामुखाश्चाष्ट सुदर्शनेऽतिचारा: प्रजाता मदवत् सदेहे ॥ १४०. ममातिचाराश्चरणे च मातृगता: शरीरिविव कर्मकाण्डाः । ते सन्तु मिथ्याऽद्य निरङकुशानां, व्यवहारवन मे जिनराजसाक्ष्या ॥ . (युग्मम्) विशुद्ध धर्म में लगने वाले प्रमाद आदि आठ अतिचारों की तरह ही यदि मेरे ज्ञान के 'काल' आदि आठ अतिचार लगे हों, देह में मद की तरह ही यदि मेरे सम्यग् दर्शन में शंका-कांक्षा आदि आठ अतिचार लगे हों तथा शरीरधारी प्राणियों के कर्म लगने की तरह ही यदि अष्ट प्रवचन माता तथा चारित्र में अतिचार लगा हो तो अनर्गल व्यक्ति के मिथ्या प्रलाप की तरह भगवद् साक्षी से वे सब मेरे मिथ्या हों। १४१. नमोमणीनामिव मण्डलेषु, तपःसु ये द्वादशभेदवत्सु । वीर्ये विलग्ना मम येऽतिचारा, मृषाऽसतां ते निखिला इदानीम् ॥ सूर्य के बारह मंडलों की भांति तप के द्वादश भेदों में और वीर्यआचार में यदि अतिचार-दोष लगे हों तो वे सभी अब मेरे लिए मिथ्या हों। १४२. षटकायिका प्राणिगणाः कदाचिद्, बोधापबोधाऽविधिवत् प्रमादः। यथा तथा बम्धमता हता ये, मया प्रदेशेष्विव दैशिकेन ॥ अन्यान्य स्थानों में घूमने वाले पथिक से होने वाली हिंसा की तरह ही यदि जाने, अनजाने तथा अविधि और प्रमाद आदि कारणों से छह काय के जीवों की विराधना हुई हो तो वह सब मिथ्या हो ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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