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________________ २५२ श्रीभिभुमहाकाव्यम् १२६. श्रीबेणिरामोत्तमहेमराजादयो विनेया वरवाक्तरङ्गाः । जाता गभीरा गुणरत्नपूर्णास्तरङ्गिणीनामिव जीवनेशाः॥ उनके मुनि श्री वेणीरामजी और हेमराजजी जैसे सरस्वती के उपासक अनेक शिष्य हुए जो सागरसम गम्भीर और गुणरत्नों से परिपूर्ण थे । वे संघ के आधारभूत थे जैसे नदियों के आधारभूत हैं समुद्र । १२७. शीलं विभूषामिव संबंधानाः, श्रीचन्दनावद्धतसाधुवादाः । जिनेन्द्रवाङ्मानसराजहंस्यः, साध्व्यो वजूजीप्रमुखा बभूवः॥ शीलरूपी आभूषणों को धारण करने वाली चन्दनबाला की तरह साधुवाद पाने वाली और जैन वाङ्मय रूपी मानसरोवर की राजहसनियों के समान वरजूजी आदि अनेक साध्वियां हुईं। १२८. शोमादिकश्रीविजयादिचन्द्रादयो बभुः श्राद्धगणाः सहस्राः। सतां चरित्रोज्ज्वलताभिरक्षाः, सन्मातृपित्राद्युपमानभूताः। शोभाचन्द्रजी (केलवा वाले) और विजयचन्दजी पटुवा (पालि वाले) आदि सहस्रों श्रावक हुए जो साधुओं की चारित्रिक उज्ज्वलता के रक्षक तथा साधु-साध्वियों के लिए माता-पिता की उत्तम उपमा को धारण करने वाले थे। १२९. श्रीचिल्लणासत्सुलसाजयन्तीसमा बभूवुः सदुपासिकाश्च । यासां पुरः शारदचन्द्रिकाः काः, का वा रमाः पुण्यपरागपूताः ।। सती चेलना, सुलसा और जयन्ती के समान अनेक श्राविकाएं हुई जिनकी चारित्रिक उज्ज्वलता के समक्ष कौनसी शरद् चन्द्रिका और कौनसी पुण्य पराग से पवित्र लक्ष्मी ! १३०. न बुध्यते सौलभबोधिसङ्ख्याः , सङ्ख्यातिगाः संस्कृतिसन्मुखीनाः । येषां पुरो डम्बरदम्भचर्या, दुर्णीतयः खजपदाः प्रणष्टाः॥ आचार्य भिक्ष के प्रयत्नों से जो व्यक्ति सुलभबोधि बने उनकी संख्या ज्ञात नहीं है। तथा संख्यातीत व्यक्ति जैन संस्कृति के अभिमुख हुए। फलस्वरूप उनके सामने से आडंबर, दंभचर्या तथा दुर्नीतियां मानो लंगड़ी होकर पलायन कर गई। १३१. शिष्यावतंसो मुनिमारिमालो, वः श्रियाचार्यपवं प्रधानम् । तारापहायेषु लसत्सु सोमः, समाश्रयद् राजपवं यथैव ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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