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________________ सप्तदशः सर्गः २४७ ९७. सदा महावीरवचोनुसारः, सदा सदाचारविधौ प्रवत्य॑म् । कदाग्रहं तां कुति च दूरे, प्रोज्झ्यात्मनर्मल्यमहो विधेयम् ॥ हे शिष्यो ! तुम कदाग्रह और कुमति को छोड़ सदा सर्वदा भगवान् महावीर के वचनों के अनुसार ही उत्तम आचार-विधि में प्रवृत्ति करते रहना और अपनी आत्मा को निर्मल बनाते रहना। ९८. महाव्रतेऽयुक्समिती त्रिगुप्तौ, प्रवर्तनीयं च महाप्रयत्नः। क्षतिर्न रक्ष्या कथमेव किञ्चिदाराधनायां सुचरित्रशुद्धः ॥ अयि शिष्यो ! पांच महाव्रत, पांच समिति एवं तीन गुप्ति- इन तेरह नियमों को महान् प्रयत्न के साथ पालते रहना और किसी भी प्रकार से शुद्ध चारिच की आराधना में क्षति मत होने देना। ९९. शिष्येष शिष्यासु व वस्त्रपात्रादिकेषु मूर्छा ममतापहार्या । प्रमादमुद्धय सुदूरतो हि, रक्ष्यानुरक्तिः शुभसंयमेषु ॥. शिष्यों में, शिष्याओं में और वस्त्र तथा पात्र आदि में मूर्छा और ममता का परिहार करना और प्रमाद से दूर होकर तुम सदा शुभ संयम में ही अनुरक्त बने रहना।। १००. ततो बभाषे ऋषिरायचन्द्र, बालोऽसि मोहो मयि नाद्य कार्यः । सोप्याह किं मोहमहं करोमि, स्वजन्मसाथ रचतः प्रमोस्ते ॥ इसके बाद मुनि श्री रायचन्द्रजी की ओर संकेत करते हुए आपने कहा-'तू बालक है । तू अब मेरे पर मोह मत करना।' यह सुनकर बालमुनि रायचन्द बोले- 'भगवन् ! आप अपने जीवन को सार्थक बना रहे हैं तो फिर मैं आप पर मोह क्यों करूंगा ?' १०१. श्रीमारिमालोऽपि तदाह नाथ ! , त्वत्सन्निधौ स्वच्छुभदर्शनेऽपि । वीर्यावदातो द्विगुणो ममान्तर्बभूव जीवोऽपि भृतः कृतार्थः॥ तब भारीमालजी स्वामी बोले-स्वामिन् ! आपके निकट में आते ही तथा आपके शुभ दर्शनमात्र से हमारा उत्साह शक्तिशाली और दुगुना हो जाता और हमारा अन्तःकरण तृप्त-सा होकर कृतार्थ हो जाता। १०२. भवद्वियोगस्य दिनान्यहोऽद्य, दृश्यन्त एवाऽतिसमीयगानि । कियानसास्तव विप्रलम्भः, स केवलं केवलिभिविवेद्यः॥ अब तो आपके वियोग के दिन अति निकट ही दिखाई दे रहे है। मापका विरह कितना असह्य होगा यह तो केवल केवली ही जान सकते हैं।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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