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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
जिसके होने पर समनन्तर साध्य की सिद्धि हो और जिसके अभाव में साध्यसिद्धि न होती हो, वही साधन माना गया है। उसके ये ही दो अंग हैं।
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१८५. व्यंहः कृत्योपबद्धानि यानि तुल्यानि कान्यपि । कार्यान्तराणि नो तस्मात् पृथग्भूतानि सन्ति च ॥
निरवद्य कार्यों के संलग्न उनके सदृश जितने भी कार्य हैं वे उन निरवद्य कार्यों से भिन्न नहीं हैं ।
१८६. तदाज्ञायां तदाज्ञापि, समायांता नितान्ततः । व्याघात्कार्यात्पृथग् देहावेर्देयं न हि शासनम् ॥
निरवद्य कार्यों की आज्ञा होने से निरवद्य कार्यों से सम्बन्धित अन्य निरवद्य कार्यों की आज्ञा तो हो ही चुकी, पर देहादिक से निरवद्य कार्य के सिवाय आज्ञा नहीं दे सकते ।
१८७. आस्वैहि शेष्व निर्माहि, तिष्ठ व्रजेति गेहिनाम् । नो वाच्यं च तथाऽन्यत्र, सद्भिर्ध्यानं प्रदीयताम् ॥
मुनि गृहस्थों को बैठो, सोओ, आओ, जाओ, करो, ठहरो नहीं कह सकते, ऐसे ही अन्यत्र ध्यान रखना चाहिए ।
१८८. औदयिकं च तन्वादि, मन्यतां पृथगेव हि ।
निरवद्यं न तत् साधं, तत्कार्यं द्विविधं भवेत् ॥
शरीरादि उदय भाव वाले हैं अतः न तो वे निरवद्य हैं और न ही सावद्य । उनको पृथक् ही समझें । परन्तु उनके कार्य दो प्रकार के हो सकते हैं ।
१८९. रूप्यकादि पृथक् तत् तत् कर्त्तव्यानि पृथग् यथा ।
सदसदुपयोगाभ्यां
यशोऽयशःप्रसारकम् ।
संसार में रुपया आदि भिन्न हैं और उनके कर्त्तव्य भी भिन्न हैं । जैसे रुपयों का सदुपयोग करने से यश का प्रसार होता है एवं असद् उपयोग करने से अपयश का प्रसार होता है ।
१९०० तथैवालयिगात्रस्य कर्त्तव्यं द्विविधं मतम् । कार्यं पुरःसरं कृत्वा, वर्त्तनीयं हितंषिभिः ॥