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________________ २१७ षोडशः सर्गः १६३. तद्वज्जातकुदेवादिकुदृग्बोधोत्पथापयान् । हित्वा सत्पथगो यः स्याच्छान्त्या निन्दा च तत्र का ॥ वैसे ही यदि ज्ञात कुदेव, कुगुरु, कुदृष्टि, उत्पथ और अपथ आदि को छोड़कर जो शान्ति से सत्पथगामी बनता है, वहां कौनसी निन्दा है ? १६४. नामख्यातियशःपूजावृद्ध्यर्थं ये तपःकराः। रिक्ताम्बवत् प्रगर्जन्ति, विकलत्यागिनश्च ते॥ नाम, ख्याति, यश और पूजा की वृद्धि के लिए जो तप करते हैं, वे खाली बादल की भांति गरजते हैं और वे विकल प्रत्याख्यानी हैं। १६५. भतविक्षतवत्तेषां, तपः संस्तारकं ह्यपि । वन्हिपातान्तवद् घुष्टं, वृत्त्याधुद्देशपूर्वकात् ॥ उनका तप क्षत-विक्षत शरीर के समान होता है तथा आजीविका के उद्देश्य से किया जाने वाला संथारा भी वह्नि में गिरकर मरने जैसा है। १६६. अनालोच्य च संस्तारं, तपः संलेखनादिकम् । कृत्वात्तध्यानतो मृत्वा, जन्म विकृत्य गामिनः॥ जो बिना सोचे संलेखना-संथारा तथा तप आदि करते हैं वे आत्तध्यान से मरकर अपने जन्म को बिगाड़ देते हैं। १६७. तादृशां कृतसंस्तारं, पारगं स्यात्तथापि च । लज्जाऽसत्यपरिणमाभ्यामकामं मरणं भवेत् ॥ ऐसे मनुष्यों का संथारा यदि पार भी पहुंच जाए तो भी लज्जावश किए जाने एवं असत्परिणाम पूर्वक होने से वह अकाम मरण है। .. १६८. अकाममृतका घोरे, निर्ममज्जुभवार्णवे। तेषां पृष्ठे हि तेषां ये, गुणग्रामकरा अपि ॥ अकाम मरण करने वाले घोर भवसमुद्र में डूबते हैं और उनके पीछेपीछे उनका गुणग्राम करने वाले भी डूब जाते हैं। १६९. मृतका मारकास्तद्वद्, दुर्गती निपन्ति ते । बध्नन्ति ते महामोहनीयं कर्म कुचक्रतः ॥ वैसे मरने वाले एवं मारने वाले दोनों ही दुर्गति में पड़ते हैं और वे कर्मों के कुचक्र से महामोहनीय कर्म भी बांध लेते हैं ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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