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________________ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् अधिक उपधि रखने वाले मर्यादालोपी संतों के लिए भगवान् ने निशीथ के सोलहवें उद्देशक में चातुर्मासिक दण्ड कहा है । २१२ १२८. असीमसरसाहारा, दामाद्देहविवर्द्धनम् । अतिविकृतिसेवाभिमांसमांसलता भवेत् ॥ १२९. ततो विषयवृद्धघादुर्दृष्ट्या स्त्रैणाभिदर्शकः । भवेदन्ते परिभ्रष्टः, शासनस्य विडम्बकः ॥ ( युग्मम् ) असीम सरस आहार से देह की वृद्धि होती है और अधिक विगय सेवन से मांस का भी उपचय होता है। उससे विषय की वृद्धि होती है और तब वे संत दुष्टदृष्टि से स्त्रियादिक को देखते हैं । ऐसे और जिनशासन की विडम्बना कराने वाले होते हैं । संत अन्तर् में भ्रष्ट १३०. दशवेकालिकाऽऽवश्यको तराध्ययनादिषु । प्रत्यहं प्रतिलेखस्य, विधानं प्रतिपादितम् ॥ दशवेकालिक, आवश्यक तथा उत्तराध्ययन आदि में हमेशा प्रतिलेखन करने का विधान है | १३१. एकमप्युपध साधू, रक्षेवप्रतिलेखितम् । निशीथद्वितीयोद्देशो, दण्डं वदति मासिकम् ॥ जो साधु एक भी उपधि को प्रतिलेखन किये बिना रख लेता है, उसके लिए निशीथ के द्वितीय उद्देशक में मासिक दण्ड का विधान है । १३२. अप्रतिलेखनात्तत्र, जीवजालापमक्षणम् । चतुर्मासे च नील्यादिकुंथुकृम्यादिजन्तवः ॥ १३३. उत्पद्यन्ते विलीयन्ते, हिंसा तेषां प्रसज्यते । किञ्चित्प्रमत्ततायोगाज्जायतेऽधिक पातकम् || ( युग्मम्) अप्रतिलेखन से जीवों के जाले जम जाते हैं, तथा चातुर्मास में और भी नील-फूल, कुन्थु, कृमि आदि जन्तु उत्पन्न होते हैं और मरते हैं । इससे प्रतिलेखन नहीं करने वालों के हिंसा लगती है और किचित् प्रमाद के योग से कितना अधिक पाप होता है ! १३४. म्रियेरन् मा म्रियेरन् वा, जीवास्तत्र कदाचन । अप्रतिलेखनात ते तु घातका विधिप्रच्युतेः ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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