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षोडशः सर्गः
६६. सच्छ्रद्धा ज्ञानपूर्वा च, सबुद्देश्यात् त्रिघा त्रिधा ।
सर्व सावद्ययोगानां, त्यागश्चारित्रमुच्यते ॥
ज्ञानपूर्वक सत् श्रद्धा हो, उसका उद्देश्य सत् अर्थात् मोक्ष हो, तीन करण, तीन योग से सर्व सावद्य योगों का त्याग हो, उसे चारित्र कहा जाता है ।
६७. विकीर्णाः किरणा एकाऽऽलोक्याऽऽलोकोऽपि विस्तृतः ।
जैनधर्म महामूल्य रहस्यं
प्राक
तदा ॥
स्वामीजी के ऐसे उपदेशों से संसार में आलोक की किरणें विकीर्ण हुई, एक कमनीय आलोक सर्वत्र प्रसृत हुआ और तब जैन धर्म का महामूल्यवान् रहस्य प्रगट हो गया ।
६८. हीनाचारं प्रति स्पष्टं, तुमुलान्दोलनं कृतम् ।
केवलं मूकभावेन, प्रतीकारो न भूयते ॥
उन्होंने हीनाचार के प्रति स्पष्ट रूप से तुमुल आंदोलन छेड़ा, क्योंकि केवल मूकभाव से हीनाचार का प्रतिकार नहीं हो सकता ।
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६९. तस्य शान्तिः समस्तानि, शशामोपद्रवाणि च । दहीति हिमानी नो, नोलब्रुविपिनानि किम् ॥
उनकी शांति ने समस्त उपद्रवों को शांत कर दिया । क्या सघन नील वृक्षों वाले वनों को महान् हिमपात भस्म नहीं कर देता ?
७०. अशंसि स्वामिना स्पष्टं श्रूयतां श्रावका हुदा । अन्तःस्फुटितनौकाभाः, सन्तस्ते किन्नु तारकाः ॥
स्वामीजी ने यह स्पष्ट कहा - श्रावको ! तुम हृदय से सुनो, जो साधु फूटी नौका के समान हैं, वे क्या तारक हो सकते हैं ?
७१. दयारूपेण हिंसायाः, परितोऽतिप्रचारकाः । आहारलोलुपा मानमुक्ताः कृतगृहिस्पृहाः ॥
७२. ज्ञानसम्पादनाख्याभिर्वेतना त्पुस्तकग्रहाः । साध्वर्थवेतन ग्राहिपाठकाद् ये हि पाठकाः ॥
७३. धर्मनाम्नि गृहस्थानां, हिंसावारुणकर्मणि प्रेरकाः प्रतिमापूजाडम्बरेषु परायणाः ॥