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परराः सर्गः
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जंगल में विहार करते समय शिष्य को बहुत प्यास लगी। उस तृष्णातुर शिष्य ने गुरु से कहा-मुझे प्यास सता रही है। गुरु ने कहा-साधु का मार्ग है, अतुल दृढ़ता रखो, सहन करो। पर शिष्य प्यास से छटपटा रहा था। वह प्यास को सह नहीं सका और उसने सजीव जल पी लिया। उसे बड़ा प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ। अन्यथा थोड़े प्रायश्चित्त में ही उसका काम निपट जाता।
इसलिए भिक्षु ! थोड़े-थोड़े के लिए हृदय को क्षुब्ध नहीं करना चाहिए। यह विचारधारा कि यह कल्पता है, यह नहीं कल्पता, अच्छी नहीं होती। यह सदा सर्वथा त्याज्य है।' इस गुरुवाणी को सुनकर भिक्षु अन्यमनस्क होकर सोचने लगे-इस प्रकार शिथिलाचार के पोषक मुनियों द्वारा ऐसे ही दृष्टान्त दिए जाते हैं।' १६१. रीयायां हरजीमुवाच मुनिराट् सत्कीतवस्त्रप्रवं,
तद् भोग्यं ह्यपि लामि नैव वसनं शङ्कास्पदं विष्टपे । वेषोवाहिवदेत एव मुनयः सत्क्रीतवस्त्रग्रहा, निर्णेताऽत्र भवेच्च को हि वदतात् तस्मान्न तल्लायकाः॥
रीयां गांव में हरजीरामजी सेठ रहते थे। वे साधुओं के लिए कपड़ा खरीदते और उन्हें देते थे। उन्होंने स्वामीजी को वस्त्र लेने की प्रार्थना की। तब स्वामीजी ने कहा तुम वस्त्र लेने की प्रार्थना कर रहे हो, परंतु मैं उन वस्त्रों को भी ग्रहण नहीं कर सकता जो तुम अपने उपभोग के लिए खरीद कर लाए हो। उसने पूछा-ऐसा क्यों ? स्वामीजी बोले-तुम्हारे यहां से वस्त्र लेना ही संदेहास्पद बन गया है। तुम्हारे यहां से वस्त्र ग्रहण करने मात्र से लोग सोचेंगे कि जैसे वेशधारी मुनि क्रीत वस्त्र लेते हैं. वैसे ही ये भीखणजी भी क्रीत वस्त्र लेते हैं। ऐसे विवादास्पद प्रसंग में कौन निर्णायक होगा कि हमने गृहस्थ के उपभोग के लिए क्रीत किए हुए वस्त्र लिए हैं अथवा साधु के लिए क्रीत किए हुए वस्त्र लिए हैं ? तुम बताओ । इसलिए हम तुम्हारे घर से वस्त्र नहीं ले सकते।
१६२. आरामे भवतां च चूतविटपी धत्तूरवृक्षोऽपर,
आनेच्छुः कनकालिपं प्रमुदितोऽसिञ्चजलयत्नतः। गत्वा पश्यति फुल्लितं च तमऽगं कुम्लानमान्नं तरं, नेत्राम्भः परिवाहयेदनुशयादाशा निराशाजनि ॥
१. भिदृ० ७८॥ २. वही, २५ ।