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पञ्चदशः सर्गः
१७३ • पाता है तो उस स्खलित होने वाले का संभल पाना मुश्किल है। ऐसे ही न्यायभ्रष्ट मनुष्यों का न्यायमार्ग से च्युत होने पर उनका शतमुखी पतन अनवरत होता रहता है।
१४८. पद्धत्से स्फुटमुल्यमुख्यविषयानन्यानपि त्वं तथा,
सर्वशेन विना न कोऽपि पुरुषो ज्ञेयान्तनिर्वाहकः। शालिशविलोकनेन नयते सिद्धानऽशेषान् सुधीः, तेषु न्यञ्चितहस्तको ज्वलयते स्वीयं करं कुण्ठया ॥
कोई व्यक्ति स्वामीजी से चर्चा कर रहा था। मूल तत्त्व तो उसकी समझ में आ गया, फिर भी वह बोला-आप कहते हैं, वह बात तो ठीक है, पर कुछ विषय पूरी तरह से समझ में नहीं आए।
स्वामीजी ने कहा-जैसे तुम मुख्य-मुख्य विषयों पर श्रद्धा करते हो, वैसे ही अन्य विषयों को भी श्रद्धा से स्वीकार कर लो क्योंकि सर्वज्ञ के बिना कोई भी व्यक्ति समस्त ज्ञेय विषयों को नहीं जान सकता । देखो, एक बर्तन में चावल पक रहे हैं। व्यक्ति दो-चार चावल के दानों को हाथ में लेकर जान जाता है कि सारे चावल पक गए हैं या नहीं। और जो व्यक्ति यह जानने के लिए चावलों के भीतर हाथ डालता है वह अपनी मूर्खता से हाथ जला बैठता है ।'
१४९. मण्डित्वा खलु पेषणी प्रपवने यत्पिण्यते गीयते,
पिष्ट्वा सर्वनिशामुदञ्चनमृतं तद्वद् व्रतादायकाः। . . ज्ञेयं ज्ञेयमकल्प्य सन्मुखपरा गृह्णन्ति दणं न ये, श्राद्धत्वं श्रमणत्वमस्तमयते तेषां न तिष्ठेन् मनाक् ॥
जिधर हवा का वेग था उसी दिशा में एक बुढ़िया ने चक्की चलाना शुरू किया। वह जैसे-जैसे पीसती जाती वैसे-वैसे ही आटा उड़ता जाता है। उसने रात भर पीसा पर उतना ही बचा जो ढक्कन में समा गया। इसी प्रकार जो साधुपन और श्रावकपन को स्वीकार कर, जानबूझकर दोष लगाते हैं और उनका प्रायश्चित्त नहीं करते, उनके शेष कुछ नहीं बचता।'
१. भिद० २६८। २. उदञ्चनम्-ढक्कन (स्यात् पिधानमुदञ्चनम् - अभि० ४१९२) । ३. भिदृ० १७५।